पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४४०)


बाहर ही के नहीं सुनौ हे हरि
भीतर हूं ते अहौ तुम कारे।
२—जो जाको गुन जानही सो तेहिं आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है काग निबौरी हेत।
३—ओछे नर की प्रीति की दीनी रीति बताय।
जैसे छीलर ताल जल घटत घटत घटि जाय।
४—करिये सुख को होत दुख यह कहु कौन सयान।
वा सोने कौ जारिये जासों टूटै कान।
५—भले बुरे मव एक सों जौ लौं बोलत नाहिं।
जानि परत हैं काक पिक ऋतु बसंत के मांहिँ।

इनके दोहों में विशेषता यह है कि प्रथमार्ध में जो विषय कहा गया है उत्तगर्द्ध में दृष्टांत देकर उसी को पुष्ट किया गया है। यह दृष्टान्तालंकार का रूप है। इस प्रणाली के ग्रहण से उन्होंने जो बात कही है उसको अधिक पुष्टि प्राप्त हो गयी है और इसी से इनकी सतसई की उपयोगिता बहुत बढ़ गई है। वृन्द पहले कवि हैं जिन्होंने इस मार्ग को ग्रहण कर पूरी सफलता लाभ की। स्फुट श्लोक और दोहे इस प्रकार के मिलते हैं, परंतु ऐसे मात सौ दोहों का एक ग्रन्थ निर्माण कर देना वृन्द का ही काम था इस दृष्टि से व्रजभाषा साहित्य में उनका विशेष स्थान है।

नीति विषयक रचनाओं में वृन्द के बाद बेताल का ही स्थान है। वे जातिके बंदीजन थे और चरखारी के राजा विक्रमशाह के दरबार में रहते थे। उनका कोई ग्रन्थ नहीं है। परन्तु स्फुट छप्पय अधिक मिलते हैं जो नीति-सम्बन्धी हैं। उनकी मुख्य भापा ब्रजभाषा है, परन्तु वे शब्द विन्यास में अधिक स्वतंत्र हैं। कभी ग्रामीण शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, कभी वैसवाड़ी और अवधी का। उनकी भाषा चलती और प्रांजल अवश्य है। भाव प्रकाशन-शैली भी सुन्दर है, यद्यपि उसमें कहीं कहीं उच्छृङॢलता पायी जाती है। वे इच्छानुसार शब्द और मुहावरे भी गढ़