पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४८४

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पलित नामक मूष शतमुख विवर करि तर तासु ।
भयो निवसत अति विचच्छन चपल लच्छन जासु ।

गोपीनाथ

४-काक के ये बचन सुनि के कह्यो हंस सुजान ।
एक गति सब बिहग की तुम काक शतगतिवान ।
एक गति सों उड़ब हम तुम यथा रुचित सुबंस ।
बाँधि यहि विधि बहस लागे उड़न वायस हंस ।

मणिदेव

भाषा के विषय में इतना ओर कहना आवश्यक होता है कि अनुवादकों की प्रवृत्ति कहीं कहीं संस्कृत के शब्दों को तत्सम रूप में रखने ही की है इसलिये व्रजभाषा के नियमानुसार शकार को मकार न करके प्रायः शकार ही रहने दिया गया है । इसी प्रकार अनुप्रास आदि के आधार से अधिक ललित बनाने की चेष्टा न कर सरलता ही पर विशेष दृष्टि रखी गयी है।

गय रणधीर सिंह जिला जौनपुर, सिॉगगमऊ के निवासी थे। आप वहां के एक प्रतिष्ठित जमींदार थे। आप के यहाँ पण्डिनों, विद्वानों, एवं कवियों का बड़ा आदर था। कविता में उनकी इतनी रुचि थी कि वह उनका एक व्यसन हो गया था उन्होंने पाँच ग्रन्थों को रचना की थी। उनमें से 'नामार्णव' पिंगल का, 'काव्यरत्नाकर' नायिका भेद और अलं- कार का और 'भूषण-कौमुदी. साहित्य-सम्बन्धी ग्रन्थ है। ये एक सरस हृदय कवि थे इनका एक पद्य देखियेः.....

मंजुल सुरंगवर मोभित अचिंत चारु
फल मकरंद कर मोदित करन हैं ।
प्रमित विराग ज्ञान के सर सरस देस
विरद असेस जसु पांसु प्रसरन हैं।
मेवित नृदेव मुनि मधुप समाज ही के ।
रनधीर ख्यात द्रत दच्छिन भरन हैं।