पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४९२

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शाल ग्रंथों की विशालता पर जब ध्यान दिया जाता है तोबड़ा आश्चर्य होता है। राज्य-काय्यृ का संचालन करते हुये जो इनकी लेखनी धारावा- हिक रूप से सदा चलती ही रही यह कम चकितकर नहीं । उनके 'राम- स्वयंबर ' रुक्मिणी परिणाय' आदि ग्रन्थ भी सुन्दर सरस और मनोहर हैं। उनकी कुछ रचनायें देखियेः-

१- कल किसलय कोमल कमल पद-तल सरि नहिं पाय।
एक सोचत पियरात नित एक सकुचत झरि जाय।
२-विलसत जदुपति नखनि मैं अनुपम दुति दरसाति।
उड़पति जुत उड़ु अवलि लखि सकुचि २ दुरिजाति।
३--सविता दुहिता स्यामता सुरमरिता नख जोत।
सुतल अम्नता भारती चरन त्रिबेनी होत ।
१ - गुलुफ कुलुफ खोलनि हृदै हो तो उपमा तृल।
ज्यों ईदीवर तट असित द्वैगुलाब के फूल ।
५-चारु चरन को आंगुरी मोपै बरनि न जाय।
कमल कोस की पाँखुरी पेखन जिनहिं लजाय ।
६-जदुपति नैन समान हित विधि है बिरचै मैन ।
मीन कंज खंजन मृगहुँ समता तऊ लहै न ।
७-मखि लखन चलो नृप कुॅंवर भलो।
मिथिला पति मदन सिया बनरो ।
मिरमौर बसन तन में पियरो।
हठहेरि हरत हमरो हियरो ।
८-उर सोहत मोतिन को गजरो
रतनारी अँखियन में कजरो ।
चितये चित चोरत सखि समरो
चितये बिन जिय न जियै हमरो ।