पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४९३

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९-अलकैं अलि अजब लसैं चेहरो
 झपि झूलि रह्यो कटि लौ मेहरो ।
 चित चहत अरी लगि जाउँ गरे।
रघुराज त्यागि जग को झगरो ।

१०-माधुरी माधवकी वह मूरति ही दृगदेखे बनैरी ।
तोन हूं लोक की जो रुचिराई सुहाईअहै तिनहीतेघनैरी
सोभा सचीपति औरति के पति की कछु आयो न मेरे मनैरी
हेरि मैं हारृयोहिये उपमा छबि हं, छवि पायो विराजित नैरी

महागज ग्घुराज सिंह के वाच्यार्थ में कहीं कहीं अस्पष्टता है. कहीं कहीं शब्दौंका समुचित प्रयोग भी नहीं है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा को साहित्य के अधिकतर उत्तम गुण उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। उनकी रचनाये भगवती वीणापाणि के चरणों में अपि॔त सुन्दर सुमनमालाओं के समान हैं।

इन भक्त महाराजाओं के साथ हम एक और सहृदय भक्त की चर्चा करना चाहते हैं । वेहैं दोनदयाल गिरि । इनकी गणना दसनामी सन्यामियों में है। कोई इन्हें ब्राह्मणमंतान कहता है और कोई क्षत्रियमंतान । वे जोहों परंतु त्यागी पुरुप थे हृदय भी उदार था और भावुकता उममें भरी थी। इनके बनाये पांच ग्रंथ हैं। उनके नाम है अनुराग वाग. दृष्टान्त तगंगिणी. अन्योक्ति माला. वैराग्यदिनेश और अन्योक्ति कल्पहम। इन ग्रन्थों का विषय इनके नामानुकूल है । ये थे शंव किंतु हृदय उदाग्था. इस लिये इनकी रचना में वह कटुता नहीं आयी है. जिसको जननी माम्प्रदायिकता है। वह बड़ी ही सरस और मधुर है साथ ही बड़ा उपयोगिनी । इन्होंने सन्यासी का कार्य ही अधिकतर किया है। समाज को संत शिक्षा देने ही में वे आजन्म प्रवृत्त रहे । इनकी भाषा टकसाली ब्रजभाषा है। वे संस्कृत के विद्वान हो कर भी अपनी रचना में संस्कृत के शब्दों का अधिक व्यवहार