पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४९६

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दयों को ठाकुर की सवैयाओं को पढ़ते सुना जाता है। प्राचीन ठाकुर के विषय में कोई ऐसा परिचय चिन्ह नहीं मिलता कि जिसके आधार से उनको औरों से अलग किया जा सके। परन्तु जो दो ठाकुर उन्नीसवीं शताब्दी में हुये हैं उनका अंतर जानने के लिये जो बातें कही जाती हैं वे ये हैं। असनी वाले ब्रह्मभट्ट को रचना अधिकतर कवित्तों में है । उन्होंने सवैया मी लिखे हैं, किंतु उसके अंत में कोई कहावत लाने का नियम उन्होंने नहीं रक्खा है। दूसरे ठाकुर, जो कायस्थ थे, उन्होंने प्रायः अपनी रचना सवैया में की है और उसके अंत में कोई न कोई "कहावत अवश्य लाये हैं । इसो परिचय-चिन्ह के आधार से उनलोगों की रचना आपलोगों के सामने उपस्थित करूंगा। प्राचीन ठाकुर की रचना मैं हिन्दी साहित्य का इतिहास से लेता हूं. क्योंकि उसके रचयिता ने यह बतलाया है कि यह रचना उन्हीं की है। प्राचीन ठाकुर के विषय में यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि वे असनी के ब्रह्मभट्ट थे। परन्तु उनकी और बातों के विषय में सभी चुप हैं। ऐसो अवस्था में मुझको भी चुप रहना पड़ता है । उनकी रचनाओं के पढ़ने से यह ज्ञात होता है, कि वे एक सरस-हृदय कवि थे और ब्रजभाषा पर उनको अच्छा अधिकार था। दो पद्य देखियेः-

१-सजि सूहे दुकूलनि बिज्जु
छटा सी अटान चढ़ी घटा जोवति हैं।
सुचिती है सुनैं धुनि मोरन की
रसमाती मँजोग सँजोवति हैं ।
कवि ठाकुर वै पिय दृरि बसैं
हम आँसुन सों तन धोवति हैं ।
धनिवै धनि पावम की रतियाँ
पति की छतियाँ लगि सोवति हैं।
२-बौर रसालन की चढ़ि डारन
कूकत फैलिया मौन गहै ना ।