पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४९९

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रूप रति आनन ते चातुरी सुजानन ते
नीर लै निवान ते कौतुक निबेरो है।
ठाकुर कहत यो सँवारृयो विधि कारीगर
रचना निहारि जनचित होत चेरो है :
कंचन को रंग लै सवाद लै सुधा को
बसुधाको मुख लूटि कै बनायो मुख तेरो है।
६-लगी अंतर में करै बाहिर की
बिन जाहिर कोऊ न मानतु है।
दुख औ सुख हानि औ लाभ सबै
घर की कोऊ बाहर भानतु है।
कवि ठाकुर आपनी चातुरी सो
सब ही सब भांति बखानतु है।
पर बीर मिले बिछुरै की बिथा
मिलि कै बिछुरै माई जानतु है।
७-एजे कहैं ते भले कहिबो करैं मान
मही सो सबै महि लीजै ।
ते बकि आपुहिॅं ते चुप होयगी
काहे को काहुवै उत्तर दीजै।
ठाकुर मेरे मते की यहै धनि
मान के जाबन रूप पताजे
या जग में जनमे को जिये को
यहे फल है हरि सो हित कीजै ।
८-वह कंज सोॅं कोमल अङ्ग गुपाल
को सोऊ सबै तुम जानती हौ ।