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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५०४

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'श्रृंगार-लतिका' इनका पाया जाता है। उसमें से कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं:-

१-बाँके संक होने राते कंज छवि छीने माते
झुकि झुकि झूमि झूमि काहू की कछू गनैन ।
द्विजदेव की सौ एसी वानक बनाय बहु ।
भाँतिन बगारे चित चाह न चहूंघा चैन ।
पेखि परे पात जो पै गातन उछाह भरे
बार बार तातैं तुम्हें बूझती कछूक बैन ।
एहो ब्रजराज मेरे प्रेम-धन लूटिबे को
बीरा खाइ आये कितै आप के अनोखे नैन ।
२-घहरि घहरि धन सघन चहूंधा धेरि
छहरि छहरि विष बूंद बरसावै ना ।
द्विजदेव की माँ अब चूक मत दाँव अरे
पात की पपीहा तृ पिया की धुन गावै ना।
फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ एरे।
मटकि मटकि मोर मोर तृ मचावै ना।
हौं तो बिन प्रान प्रान चाहत तजोई अब
कत नभ चन्द तृ अकास चढ़ि धावै ना।
३-चित चाहि अबूझ कहैं कितने छवि
छीनी गयंदनि की टटकी ।
कवि केते कहैं निज बुद्धि उदै
यह लीनी मरालनि की मटकी ।
द्विजदेव जू ऐसे कुतर्कन में सब की
मति यों ही फिरै भटकी ।