पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४९३)

अंगुलि-निर्देश-योग्य हो। सत्रहवीं शताब्दी में पारी साहब नामक एक मुंसल्मान ने कबीर साहब का मार्ग ग्रहण कर कुछ हिन्दी के शब्द (भजन) बनाये। ये सूफ़ी सम्प्रदाय के थे, परन्तु हिन्दी में प्रचार करने के कारण हिन्दुओं पर भी इनका प्रभाव पड़ा। इनक दाे शिष्य थे—केशवदास और बुल्ला साहब। पहले हिन्दू थे और दूसरे मुंसल्मान। ये अठारहवीं शताब्दी में हुये। इनकी रचनायें भी हिन्दी में हुई और इन्होंने भी हिन्दू जनता को अपनी ओर आकर्पित किया! बुल्ला साहब के शिष्य गुलाल साहब हुये-ये जाति के क्षत्रिय थे, और इन्होंने भी निर्गुण वादियों की सी रचनायें हिन्दी में की। पारी साहब अथवा बुल्ला साहब के रहन-सहन की प्रणाली अधिकतर हिन्दुआके ढंगमें ढली हुई थी। गुलाल साहब तक पहुंच कर वह सर्वथा हिन्दू भावापन्न हो गयी। बैष्णवों की तरह इन्हाेंने तिलक और माला इत्यादि का प्रचार किया और सत्य राम मंत्र का उपदेश। इनके शिष्य भीरवा साहब हुये। ये जाति के ब्राह्मण थे। इस लिये इनके समय में इस परम्परा में ऐसे परिवर्तन हुए जो अधिकांश में वैष्णव सम्प्रदाय की अनुकूलता करते थे। ये अठारहवीं शताब्दी के अन्त में हुये और इन्हों ने भी हिन्दी भाषा में रचनायें की जाे वेसी ही हैं जैसी निर्गुणवादी साधुओं की होती है। इनके शिष्य गोविन्दवर हुए जो गाविन्द साहब के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया, जिसका मंत्र है 'सत्य गाविद'। ये भी ब्राह्मण और संस्कृत के विद्वान् थे। इसलिये इनके सम्प्रदाय की ओर हिन्दू जल्दी भी अधिक आकर्षित हुई। इनकी हिन्दी रचनायें भी पायी जाती है, परन्तु थोड़ी हैं और उनमें गंभीरता अधिक है। इस लिए सर्व साधारण में उनका अधिक प्रचार नहीं हुआ। इन्हीं के शिष्य पलटू दास हुये जो इस उन्नीसवीं शताब्दी पृर्वार्द्ध में जीवित थे। पारी साहब की परंपरा इनके साथ ही समाप्त होती है। पलटू साहब जाति के बनिया थे, किन्तु सहृदय थे। जितनी रचनायें उन्हों ने की, चलती और सरल भाषा में। इस लिये उनकी रचनाओं का प्रचार अधिक हुआ। वे अपने काे निर्गुण वानिया कहा करते और लिखते थे। कबीर साहब के समान कभी ऊंचा उड़ान भी भरते थे। उनके कुछ पद्य देखिये :—