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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५१२

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चंद टरै सूरज टरै टरैं जगत के नेम।
पै दृढ़ श्री हरिचंद को टरै न अविचल प्रेम।

जब वे अपनी सांसारिकता को देखते और कभी आत्म-ग्लानि उत्पन्न होती तो यह कहने लगते।

जगत-जाल में नित बँध्यो पर्यो नारि के फंद।
मिथ्या अभिमानी पतित झूठो कवि हरिचंद।

उनकी जितनी रचनायें हैं इसी प्रकार विचित्रताओं से भरी हैं। कुछ उनमें से आप लोगों के सामने उपस्थित की जाती हैं:—

१— इन दुखियान को न सुख सपने हूं मिल्यो
यों ही सदा व्याकुल विकल अकुलायँगी।
प्यारे हरिचंद जूकी बीती जानि औधि जोपै
जै हैं प्रान तऊ एतो संग ना समायँगी।
देख्यो एक बार हूं न नैन भरि ताहि यातें
जौन जौन लोक जैहें तहाँ पछतायेंगी।
विना प्रान प्यार भये दरस तिहारे हाय
मुएहूं पै आँखेँ ये खुली ही रह जाँयगी।
२— हौं तो याही सोच में विचारत रही रे काहें
दरपन हाथ ते न छिन विसरत है।
त्याेंही हरिचंद जू वियोग औ सँजाेग दोऊ
एक मे तिहारे कछु लखि न परत है।
जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात तू तो
परम पुनीत प्रेम-पथ बिचरत है।
तेरे नैन मूरति पियारे की वसति ताहि
आरसी में रैन दिन देखिबो करत है।