थे। प्रकृति बड़ी स्वतंत्र थी, लगी—लिपटी बातें पसंद नहीं थीं। इसलिये खरी बातें कहना हो उनका व्रत था। वे वावू हरिश्चन्द्र के बड़े प्रेमी थे और अपने 'ब्राह्मण' मासिक पत्र पर 'हरिश्चन्द्राय नमः' लिखा करते थे। इससे उनका हिन्दी भाषा-प्रेम प्रकट है। वे अधिक अर्थकृच्छ होने पर भी अपने 'ब्राह्मण' को बराबर निकालते रहे और उस समय तक अपने इस धर्म को निबाहा जब तक उनकी गाँठ में दाम रहा। देश-ममता, जाति-ममता, और भाषा-प्रेम उनकी रग रग में भरा था। आजीवन उन्हों ने इसको निबाहा। इन तीनों विषयों पर उन्होंने बड़ी सरस रचनायें की हैं। जितनी पंक्तियाँ उन्होंने अपने जीवन में लिखीं, वे चाहे गद्य की हों या पद्य की, उन सबों में इन तीनों विषयों की धारा ही प्रबल बेग से बहती दृष्टिगत होती है। वे मूर्तिमन्त देश-भक्त थे। इसी लिये उनकी सब रचनायें इसी भाव से भरी हैं। उन्हों ने एक दर्जन पुस्तकं बँगला में अनुवादित की और पन्द्रह बीस पुम्नकं स्वयं लिखी, जिनमें से 'प्रताप-संग्रह', 'मानस-विनोद', 'मन की लहर', 'व्रेडला-स्वागत', 'लोकोक्तिशतक', 'तृप्यंताम्' आदि अनेक ग्रन्थ पद्य में लिखे गये हैं। इन सब में उनकी मानसिक प्रवृत्ति स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। उन्होंने प्रार्थना और विनय के पद भी कहे हैं और ईश्वर एवं धम-सम्बन्धी रचनायें भी की हैं, परन्तु उनमें वह ओज और आवेश नहीं पाया जाता, जो देश-अथवा जाति-सम्बन्धी रचनाओं में मिलता है। उनके पद्यों की एक ही भाषा नहीं है। कभी उन्हों ने अपनी वैसवाड़ा बोलचाल में रचना की है, कभी उर्दू मिश्रित खड़ी बोली में, और कभी व्रजभाषा में। अधिकांश रचनायें व्रजभाषा ही में हैं। जितने पद्य उन्होंने देश और जाति-सम्बन्धी लिखे हैं, उनमें उनके हृदय का जीवन्तभाव बहुत ही जाग्रत मिलता है जो हृदया में तीव्रता के साथ जीवनी-धारायें प्रवाहित करता है। जब व्रेडला साहब भारत में पधारे उस समय उन्होंने उनके स्वागत में जाे कविता लिखी; उसमें देश की दशा का ऐसा सच्चा चित्रण किया कि उसकी बड़ी प्रशंसा हुई, यहां तक कि विलायत तक में उसकी चर्चा हुई। उनको अधिकांश रचनायें इसी प्रकार की हैं। उनमें से कुछ मैं आप लोगों के सामने रखेगा। पहले देखिये वे हिन्दी,
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