पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५२४

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आप का बड़ा सम्मान था। बहाँ आप संस्कृत के प्रोफेसर थे। वे संस्कृत के बिद्वान ही नहीं थे, बहुत बड़े वक्ता भी थे। ब्याख्यान के समय जनता को अपनी मूठियों में कर लेना उनके बायें हाथ का खेल था। बिहार में आर्य्यसमाज के संग जब जब उनका शास्त्रार्थ हुआ तब तब उन्हों ने विजय-पत्र प्राप्त किये। धारा प्रवाह संस्कृत बोलते थे और कठिन से कठिन शास्त्रीय विषयों को इस प्रकार सुलझाते थे कि प्रति पक्षियों के दाँत खट्टे हो जाते थे। वे शास्त्र-पारंगत विद्वान तो थे हो, उनकी धारणाशक्ति भी बड़ी प्रवल थी। एक काल में वे कई कार्य्य साथ साथ कर सकते थे। इस बिषय में उनकी कई बार परीक्षा ली गयी और वे सदा उसमें सफलता के साथ उत्तीर्ण हुये। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की भी रचना की है। बाबू हरिश्चन्द्र की 'ललिता' नाटिका का अनुवाद संस्कृत में किया था। वेघटिका शतक थे। एक घंटे में संस्कृत के १०० अनुष्टुप वृत्तों की रचना कर देते थे। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान होने पर भी हिन्दी भाषा के बड़े अनुरागी थे। उन्हों ने हिन्दी भाषा में 'पीयूष-प्रवाह' नाम का एक मासिक पत्र भी निकाला था। उनकी गद्य और पद्य दोनों की रचनायें सुंदर और सरस होती थीं। वे आशु कवि थे। इस लिये हिन्दी समस्याओं की पूर्त्ति बात की बात में कर देते थे। उनके पिता पंडित दुर्गादत्त भी हिन्दी भाषा के बड़े अच्छे कवि थे। उन्हीं के प्रभाव से ये सब बिलक्षणतायें उनमें एकत्रीभूत थीं। एक बार उन्हें समस्या दी गयी। :—

मूंदि गयी आंखैं तब लाखैं कौन काम की।

उन्हों ने तत्काल उसको पृत्तियां की। :—

चमकि चमाचम रहे हैं मनिगन चारु
सोहत चहूँघा धूम धाम धन धाम की।
फूल फुलवारी फलफैलि कै फबे हैं तऊ
छबि छटकीली यह नाहिंन अराम की।
काया हाड़ चाम की लै रामकी बिसारी सुधि
जामकी को जानै बात करत हराम की।