आतप पर्यो प्रभात ताहि सों खिल्यो कमल मुख।
अलक भौंर लहराय जूथ मिलि करत विविधसुख।
चकवा से दोउ नैन देखि एहि पुलकत मोहत।
सुकवि विलोकहु स्याम पीतपट ओढ़े सोहत।
देखिये 'भौंह'-सम्बन्धी उनकी यह रचना कितनो सुन्दर है :—
३— नैन कमल लखि उमँग भरे से।
भृकुटि व्याज जनु पाँति करे से।
फरफरात पुनि ठटकारे ले।
घूमत मलिंद मतवारे मे।
उनके दो दोहे भी देखिये :—
४— गुंजा री तू धन्य है वसत तेरे मुख स्याम।
याते उर लाये रहत हरि तोको बसुयाम।
५— मोर मदा पिउ पिउ करत नाचत लखिघनश्याम।
या सों ताकी पाँख हूँ सिर धारी घनश्याम।
व्यास जी जयपुर निवासी थे। इसलिए बड़ी सरस व्रजभाषा में रचना करते थे। जिसे इसके प्रमाण की आवश्यकता हो वह इनकी रची 'सतसई' को देखे। वे जब तक जीवित रहे, हिन्दी संसार में भारतेन्दु के समान ही उनकी कीति भी थी। उन्होंने हिन्दी-संसार को गद्य और पद्य के जितने ग्रंथ दिये हैं वे बड़े अमूल्य हैं और उनके लिये हिन्दी संसार उनका संदा ऋणी रहेगा।
बाबा सुमेर सिंह सिक्ख गुरु और पटने के महंत थे। ज़िला आज़मगढ़ के निज़ामाबाद कस्बे में उनका निवास था। वे सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास के वंशज थे। इसलिये साहब ज़ादे कहे जाते थे। जाति के भल्ले खत्री थे। परमात्मा ने उनको बड़ा सुन्दर रूप दिया था। जैसा