पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५२८

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हूं। उन्हीं से आप लोग उनकी कविता की भाषा और उनके विचार का अनुमान कर सकते हैं :—

१— सदना कसाई कौन सुकृत कमाई नाथ
मालन के मनके सुफेरे गनिका ने कौन।
कौन तप साधना सों सेवरी ने तुष्ट कियो
सौचाचार कुबरी ने कियो कौन सुख भौन।
त्यों हरि सुमेर जाप जप्यो कौन अजामेल
राज को उबार्यो बार बार कवि भाख्यो तौन।
एते तुम तारे सुनो साहब हमारे राम
मेरी बार विरद बिचारे कौन गहि मौन।
२— बातें बनावती क्यों इतनी हमहूं
सों छप्यो नहीं आज रहा है।
मोहन के बनमाल को दाग दिखाइ
रह्यो उर तेरे अहा है।
तृ डरपै करै सौहें सुमेर हरी
सुन सांच का आँच कहाँ है।
अंक लगी तो कलङ्क लरयो जो
न अङ्क लगी तो कलङ्क कहा है।

बाबा सुमेरसिंह ने आजीवन कविता देवी हो की आराधना की। उन्होंने न तो गद्य लिबने की चेष्टा की और न गद्य ग्रन्थ रचे। उनका जीवन काव्यमय था और वे कविता पाठ करने और कराने में आनन्द लाभ करते थे। अपनी कविता के विषय में उनकी बड़ी बड़ी आशायें थीं। वे उसका बहुत प्रचार चाहते थे और कहा करते थे कि हिन्दू सिक्खों की भेद-नीति का संहार इसी के द्वाग होगा। परन्तु दुःख से