पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५३१

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के उपरान्त हिन्दी संसार में एक बहुत बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ । वह विंवाद यह था कि हिन्दी पद्य-रचना भी ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में होनी चाहिये। उनके सामने इसका सूत्रपात्र मात्र हुआ था। कुछ लोगों के जी में यह बात उत्पन्न हो रही थी और आपस में इसकी चर्चा भी होने लगी थी। परंतु बिचार ने आन्दोलन का रूप नहीं ग्रहण किया था। अब वह वास्तविक आन्दोलन बन गया था और व्रजभाषा एवं खडी बोली के पक्षपातियों में द्वन्द्व होने लगा था। इसका कारण सामयिक परिस्थिति थी। उर्दू का इस समय बोलबाला था और सरकारी कचहरियों में उसको स्थान प्राप्त हो गया था। वह दिन दिन वृद्धि लाभ कर रही थी और हिन्दी-क्षेत्रों पर भी अधिकार करती जाती थी। पंजाब से बिहार की सीमा पर्यन्त उसका डंका बज रहा था और अन्य प्रान्तों में भी प्रवेश-लाभ की चेष्टा वह कर रही थी। उसके पृष्ट पोषक मुस्लिम समाज और उसके नेता ही नहीं थे. हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा दल भी उसका पक्षपाती था। उसके जहाँ और गुण वर्णन किये जाते थे वहाँ यह भी कहा जाता था कि उर्दू की गद्य और पद्य की भाषा एक है, हिन्दी को तो यह गौरव भी नहीं प्राप्त है। वास्तव बात यह है कि इन सुविधाओं के कारण वह उत्तरोत्तर उन्नत हो रही थी और उसका साहित्य-भांडार दिन- दिन उपयोगी ग्रन्थों में भर रहा था। उस समय जितने ग्रन्थ हिन्दी के निकले उनकी गद्य की भाषातो खड़ी बोली को और पद्य की भाषा ब्रजभाषा होती थी। यह पद्य की भाषा युक्त प्रान्त के सब विभागों में तो किसी प्रकार समझ भी ली जाती थी. परन्त बिहार या पंजाब या मध्य हिंद में उसका समझना दुस्तर था, क्योंकि वह एक प्रान्तीय भाषा थी। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि उसका विस्तार एक प्रान्त ही तक परिमित नहीं था, वह अन्य प्रान्तों तक विस्तृत हो चुकी थी. जिसकी चर्चा मैं पहले कर मी चुका हूं। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उस समय जैसी सुगमता से खड़ी बोल चाल या गद्य की भाषा को लोग पश्चिमोत्तर प्रान्त या अन्य प्रान्तों में समझ लेते थे. ब्रजभाषा को नहीं समझ सकते थे। इस कारण हिन्दी भाषा उतना निर्वाध रूप से उन्नति नहींकर सकती थी जितना