पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५३२

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उर्दू। यह एक ऐसो बात थी जिससे उक्त आन्दोलन को उस समय बहुत बड़ा बल मिला । उन दिनों यह भी देखा जाता था कि अंग्रज़ो स्कूलों और ग्रामीण पाठशालाओं के अधिकतर हिन्दू लड़के कोर्स में उर्दू लेना ही पसंद करते थे। जहाँ और कारण थे वहाँ एक यह कारण भी उपस्थित किया जाता था कि हिन्दी पुस्तकों की गद्य की भाषा और होती है और पद्य की और जिससे हिन्दू बालकों को एक प्रकार से कठिनता का सामना करना पड़ता है ओर विवश होकर उन्हें सुविधा को दृष्टि से) हिन्दीके स्थान पर उर्दू लेना पड़ता है। उन दिनों इस बिचार से भी उक्त आन्दोलन को बहुत कुछ सहायता मिली थी। मुझको स्मरण है कि इस आन्दोलनको लेकर उस समय के दैनिक 'हिन्दुस्थान' तथा अन्य पत्रों में उभय पक्ष के लोगों में बड़ा द्वंद्व हुआ था। बिहार प्रान्त के बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री के हाथ में इस आन्दोलन का झंडा था. व बिहार ओर पश्चिमोत्तर प्रान्तों के अनेक स्थानों में घूम घूम कर उन दिनों यह प्रयत्न कर रहे थे कि पद्यमें भी खड़ी बोलो को स्थान मिले और ब्रजभाषा का बहिष्कार किया जाय । यह आन्दोलन सामयिक परिस्थिति के कारण सफल हुआ और हिन्दी साहि- त्यिकों का एक दल इसके लिये कटिवद्ध हो गया कि ब्रजभाषा के स्थान पर वह खड़ी बोलचाल में कविता करे। इस दल के नेता पं० महाबीर प्रसाद द्विवेदी कहे जा सकते हैं। 'सरस्वती' के सम्पादन काल में उन्होंने बड़ी बोली का बड़ा आदर किया और बहुतों को उत्साहित कर खड़ी बोलो की रचनायें उनसे करायीं । स्वयं भी उन्होंने खड़ी बोली की कवितायें लिखी परन्तु स्व० पं० श्रीधर पाठक ही ऐसे पहले पुरुष हैं जिन्होंने खड़ी बोलचाल में एक कविता पुस्तक आदि में लिखी । यह कविता पुस्तक 'हरमिट' (Hermit) का अनुवाद है. जिसका हिंदी नाम एकान्तवासी योगी है । उन्होंने पं० महाबीर प्रसाद द्विवेदी के पहले ही इस आन्दोलन में अग्र भाग लिया था और पंडित प्रतापनारायण मिश्र से खड़ी बोली के पक्ष में खड़े होकर पूरा वाद-विवाद किया था। मैं ऊपर लिख आया हूं कि बाबू हरिश्चन्द्र ने भी खड़ी बोली को कविता की है। ऐसे हा पं० बदरीनागयण चौधरी, पं० प्रतापनारायण मिश्र की भी कुछ रचनायें खड़ी बोला की हैं। परन्तु ग्रन्थ