पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५३५

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वकार के विषय में नहों। खड़ी बोलचाल के कवियों की रुचि यह देखी जाती है कि वे 'मुंह' के स्थान पर 'मुख', 'सिर' के स्थान पर 'शिर', होंठ' या ‘ओंठ' के बजाय 'ओष्ठ', 'बाँह' के स्थान पर 'बाहु' इत्यादि लिखना ही पसंद करेंगे, यद्यपि उनका हिन्दी रूप लिखा जाय तो भाषा सदोष न हो जायगी। कुछ इस बिचार के लोग हैं कि 'स्नेह', के स्थान पर ‘सनेह', 'आलाप' के स्थान पर 'अलाप' 'केश के स्थान पर केस', पलाश' के स्थान पर 'पलास', 'कमल' के स्थान पर कँवल' या कौल' लिखना ठीक नहीं समझते. यलपि इनका लिखा जाना अनुचित नहीं। क्योंकि बोलचाल में वे इसी रूप में गृहीत हैं । ये. वे. तद्भव शब्द हैं हिन्दी भाषा जिनके आधार से ही प्राकृत भाषा से अलग होकर अपने मुख्यरूप में परिणत हुई। ब्रजभाषा और अवधी में समस्त कारक-चिन्हों का आवश्यकतानुसार लोप कर दिया जाता है. विशेष कर्ता. कर्म. करण और अधिकरण के चिन्हों का । किन्तु खड़ी बोलचाल की रचनाओं में इनमें से किसी एक का भी लोप नहीं किया जाता । गद्य के अनुसार समस्त कारक-चिन्हों का अपने स्थान पर विद्यमान रहना नियम के अंतर्गत माना जाता है। उन्हीं अवस्थाओं में ऐसा नहीं किया जाता जब वाक्य मुहावरे के अंतर्गत हो जाता है। जैसे ‘कान पड़ी आवाज़', 'आंखों देखी बात' रात बसे' इत्यादि । ब्रजभाषा और अवधी में आवश्यकता होने पर लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु प्रायः करदेते हैं और ऐसा करना उनमें नियमानुकूल माना जाता है। किन्तु बड़ी बोली इस प्रणाली को सदोष समझती है, इस लिये उस से बचती है। हां, पढ़ने के समय वह दीर्घ कारकचिन्हों और सर्वनामोंको हस्व अवश्य पढ़ लेती है और पदान्त में हस्ववर्ण को दीर्घ मान लेती है। परंतु कभी कभी. सब जगह नहीं। शब्दों का तोड़ना मरोड़ना और शब्द गढ़ लेना भी खड़ी बोली के नियमानुकूल नहीं है। वह ऐसा करना अच्छा नहीं समझती । खड़ी बाली में एक यह बात भी देखी जाती है कि संस्कृत के जिन शब्दों से अवधी या ब्रजभाषा का लिंग-भेद हो गया है उनको वह संस्कृत के अनुसार लिखती है। पवन, वायु इत्यादि शब्द इसके उदाहरण हैं । ब्रजभाषा और अवधी में प्रायः ये शब्द स्त्रीलिंग