पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४०

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उस समय भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे । केवल अन्तर इतना ही है कि अब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में खड़ी बोली को प्रधानता प्राप्त हो गयी है। आन्दोलन के पहले बाबू हरिश्चन्द्र और उनके समसामयिक कवियों को भी खड़ी बोली की दो एक स्फुट कवितायें करते देखा जाता है, यद्यपि उनमें खड़ी बोलो का वह आदर्श नहीं पाया जाता जो बाद को दृष्टि गत हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र के एक पद्य का कुछ अंश नोचे दिया जाता है जिससे आप अनुमान कर सकेंगे कि वे भी उस समय खड़ी बोली की रचना की और कुछ आकर्पित हुये थे । वे पंक्तियां ये हैं:-

कहां हो ऐ हमारे रामप्यारे ।
किधर तुम छोड़ कर हमको सिधारे ।
बुढ़ापे में यह दुख भी देखनाथा ।
इसी के देखने को मैं बचा था ।

इनके उपरान्त प० बदरीनारायण चौधरी और पं० प्रताप नारायण मिश्र को भी हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की दो एक स्फुट कविता करते देखा जाता है। मैं इनकी कवितायें पहले के पृष्ठों में उद्धृत कर आया हूं। इसके बाद हमारे सामने श्रीधर पाठक आते हैं. जिन्होंने 'एकान्तवासी योगी' नामक खड़ी बोली चाल की एक पद्य पुस्तक हो लिख डाली।

पं० श्रीधर पाठक ब्रजप्रान्त के रहने वाले थे, आगरे में उनका निवास था। इसीलिये व्रजभाषा से उनको स्वाभाविक प्रेम था। वे अँगरेज़ी और संस्कृत दोनों के विद्वान थे। किंतु सरस-प्रकृति होने के कारण कविता रचने की ओर उनको विशेष प्रवृत्ति थी। पहले वे व्रजभाषा में ही कविता करते थे। परंतु समय की गति उन्हों ने पहिचानी और बाद के खड़ी बोली की ओर आकर्षित हुये। वे हिन्दी संसार में खड़ी बोल के पहले पद्यकार होने की दृष्टि से ही आहत हैं । हिन्दी के कुछ स्फुट गद्य लेख और 'तिलस्माती मुँदरी नामक एक उपन्यास भी उन्होंने लिखा है। परंतु कीर्ति उन्होंने पद्य-ग्रंथ लिख कर हो पाई।