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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४१

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संयुक्त प्रान्त की गवर्नमेंट के दफ्तर में पहले वे डिप्टी सुप-रिटेन्डेन्ट थे; किन्तु बाद को सुपरिन्टेडेन्ट हो गये थे। इस कारण उनको समयाभाव था। फिर भी वे यथावकाश हिन्दी देवी को सेवा में रत रहे। खड़ी बोली का उनका पहला पद्य ग्रंथ एकान्तवासी योगी है। इसके बाद उन्होंने जगत सचाई सार और श्रान्त पथिक नामक दो और छोटे ग्रंथ लिखे। जगत सचाई सार उनका स्वरचित ग्रंथ है, शेष दोनों ग्रंथ अगरेज़ी ग्रथों के अनुवाद हैं। ये दोनों ग्रन्थ मी छोटे हैं परन्तु इन्हीं के द्वारा उनको खड़ी बोली का पहला ग्रन्थकार होने का गौरव प्राप्त है। इनदोनों ग्रंथों की भाषा अधिकतर संस्कृत गर्भित है, उनमें खड़ी बोलचाल के नियमों को रक्षा भी यथार्थःरीति से नहीं हुई है। किसी भाषा की आदिम रचना में जो त्रुटियां होती हैं वे सब उनमें मौजूद हैं। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने इन ग्रंथों की रचना कर के खड़ी बोली की कविता का मार्ग बहुत कुछ प्रशस्त बनाया। उनके कुछ पद्य देखिये :—

१— साधारण अति रहन सहन
मृदु बोल हृदय हरने वाला।
२— मधुर मधुर मुसक्यान मनोहर
मनुज बंश का उँजियाला।
३— सभ्य सुजन सत्कर्म परायण सौम्य सुशील सुजान।
४— शुद्ध चरित्र उदार प्रकृति शुभ विद्या बुद्धि निधान।
५— प्राण पियारे की गुण गाथा साधु कहां तक मैं गाऊं।
६— गाते गाते नहीं चुके वह चाहे मैं ही चुक जाऊं।
७— विस्व निकाई विधि ने उसमें की एकत्र बटोर।
८— बलिहारौं त्रिभुवन धन उसपर वारौं काम करोर

एकान्त वासी योगी।