रहा है। परंतु कुछ लोगों ने इसका पूग अनुकरण नहीं किया, उन्होंने कोमल तथा ललित शब्दों को ही अपनी रचनाओं में स्थान दिया । आज कल विशेष कर कोमल और सरस शब्दों में रचना करने की ओर लोगों की दृष्टि आकर्षित है, और पहले से खड़ी बोलचाल की रचनायें अधिक कोमल और सरस होने लगी हैं। प्राकृत भाषायें संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रतिकूल थीं। इसकी कुछ प्रतिक्रिया अवधी और ब्रजभाषा में हुई । खड़ी बोलो की रचना में वह पूर्णता में परिणत हो गई।
२--ब्रजभाषा और अवधी में हलंत का सस्वर प्रयोग होता है । प्राकृत में भी अनेक स्थलों पर यह प्रणाली गृहीत है। श्री धर जो ने अपनी खड़ी बोली की रचना में इस प्रणाली को स्वीकार कर लिया है। इसीलिये उनके ऊपर के पयों में चतुर्दिक', वृहत', एवं विद्वान' के अंतिम अक्षर जिन्हें हलंत होना चाहिये. सस्वर लिग्वे गये हैं। आज कल युछ लोगों को देखा जाता है कि हलन्त वर्णों को हलन्त ही लिखना चाहते हैं। मैं समझता हूं ऐसा करने से मुद्रण काय्य में हो असुविधा न होगी. अनेक खड़ी बोली के पद्यों की रचना में भी कठिनता होगी। विशेषकर उन रचनाओं में जो संस्कृत वृत्तों में की जाँयगी। इस लिये मेरा विचार है कि इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिये ।
३--संस्कृत का नियम है कि संयुक्त वर्ण के पहले जो वर्ण होता है उसका उच्चारण दीघ होता है। एक शब्द के अन्तर्गत इस प्रकार का उच्चारण स्वाभाविक होता है । इस लिये उसमें जटिलता नहीं आती । वह स्वयं सरलता से दोघ उच्चरित होता रहता है। जैसे समस्त कलत्र', 'उन्मत्त आदि। परंतु जहाँ वह समस्त रूप में होता है वहाँ उसका उच्चारण दीर्घ रूप में करने से हिन्दी रचनाओं में एक प्रकार को जटिलता आजाती है। इसलिये विशेष अवस्थाओं को छोड़ कर. मेरा विचार है कि उसका ह्रस्व उच्चरित होना हो सुविधा जनक है। ऊपर के पद्यों में सिग्स ध्वनि और 'वृहत व्यवसाय ऐने हो प्रयोग हैं। संस्कृत के नियमानुसार 'सरस' के अंतिम ‘स' को और वृहत' के त' को दीर्घ होना चाहिये। किंतु उसको दोर्घ बनाने से छन्दो भंग होगा। इसी लिये पद्य कार ने उसको ह्रस्व रूप