पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४८

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सम्हल कर प्रयोग किया जावे तो खड़ी बोल चाल में उसका प्रयोग शुद्ध रूप में हो सकता है। हां, 'धारना' क्रिया के रूपों का प्रयोग अवश्य विचारणीय है। क्योंकि उसका प्रयोग दो अर्थों में होता है एक 'रखना' के और दूसरा 'पकड़ना' क्रिया के। उर्दू वाले इसके स्थान पर 'रखना' और 'पकड़ना' क्रिया के रूपों ही का प्रयोग करते हैं। हिन्दी गद्य में भी ऐसा ही होता है। इस लिये उसका प्रयोग खड़ी बोली की कविता के लिये अधिक अनुकूल नहीं है। उसमें एक प्रकार की ग्रामीणता है। परन्तु यह क्रिया उपयोगिनी बड़ी है। अनेक अवसरों पर वह अंकली दो दो क्रियाओं का काम दे जाती है और इसी लिये वह अब तक खड़ी बोली के पद्यों में स्थान पाती आती है। मेरा विचार है कि उसका सर्वथा त्याग उचित नहीं। हाँ, उसका बहुल प्रयोग अच्छा नहीं कहा जा सकता। अब रहा 'अनुसरती है' का प्रयोग। निम्सन्देह 'अनुमरना' हिन्दी में कोई धातु नहीं है। यह क्रिया व्रजभाषा से ही आयो है, परन्तु उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया गया है। क्रिया है बड़ी मधुर। इस पर कवित्व की छाप है। मेरा विचार है कि व्रजभापा को ऐसी क्रियाओं को खड़ी बोलचाल, का रूप दे कर ग्रहण कर लेना युक्ति-संगत है। इससे खड़ी बोली वह सिद्धि प्राप्त कर लेगी जो सरसता की जननी है। पंक्ति १२ में 'अधिकाई' और 'बसेहै' का प्रयोग है। बसेहैं में गहरा दूरान्वय दोष है। वह तो ग्रहणीय नहीं। अब रहा यह कि 'बसेहै', 'जलेहै' इत्यादि प्रयोग खड़ी बोलचाल की कविता में होना चाहिये या नहीं। किसी क्रिया का वर्त्तमान काल का रूप खड़ी बोलचाल में इस प्रकार नहीं बनता। इसलिये इस प्रकार का प्रयोग अच्छा नहीं 'अधिकाई' लिखा जाना भी असुन्दर है। 'देखूहूं' और 'दीखैं' क्रियाओं का प्रयोग पंक्ति १६ और १७ में हुआ है, यह प्रयोग भी खड़ी बोली के नियमों के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार पंत्ति ८ के 'बलिहारौं' 'वारौं' क्रियाओं का व्यवहार भी खड़ी बोली के नियमों के अनुसार नहीं। इसलिये मेरी सम्मति यही है कि इस प्रकार की क्रियाओं से खड़ी बोलचाल की रचनाओं को सुरक्षित रखना चाहिये। पाठक जी की खड़ी बाेली की आदिम रचनाओं में इस प्रकार की क्रियाओं का आना