पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४९

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उतना तर्क-योग्य नहीं, क्योंकि वह खड़ी बोली के प्रसार का आदिम काल था। मुझे हर्ष है कि उनके बाद के सहृदय कवियों ने इस प्रकार के प्रयोगों की उपेक्षा कर के खड़ी बोली की कविता का मार्ग अधिकतर निर्दोष बना दिया है।

आपलोग यदि एक बार सिंहावलोकन से काम लेंगे तो यह ज्ञात हो जायगा कि खड़ी बोली का अस्तित्व उसी समय से है जब से व्रजभाषा अथवा अवधी का। ख़ुसरो की कवितामें उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। बरन यह कहा जा सकता है कि जैसा सुन्दर आदर्श खड़ी बोली की कविता का उन्होंने उपस्थित किया उन्नीसवीं शतब्दी के अंततक वैसा आदर्श नहीं उपस्थित किया जा सका। कबीर साहब की रचनाओं में भी उसका रंग पाया जाता है। भूषण के कवित्तों में भी उसकी झलक मिलती है। महन्त सीतल ने तो एक प्रकार से उसकी बांह ही पकड़ ली और उस निगवलम्बा को बहुत कुछ अवलम्बन दिया। इंशा अल्ला खां ने अपनी रानी केतकी की कहानी में और नज़ीर अकबराबादी ने अपनी स्फुट रचनाओं में उसका रङ्ग रूप दिखलाया। रघुनाथ, ग्वाल कवि और सदन की रचनाओं में भी उसकी छटा दृष्टिगत होती है और वह करवट बदलती ज्ञात होती है। बाबू हरिश्चन्द्र, पं° प्रतापनारायण और पं° बदरी नारायण चौधरी ने तो उसके कतिपय स्फुट पद्य बना कर उसे वह शक्ति प्रदान की जिसके आधार में पं° श्रीधर पाठक ने उसको दो सुन्दर पुस्तकें भी प्रदान की। इसी समय पं° अम्बिका दत्त व्यास ने 'कंस वध' नामक एक साधारण काव्य निदर्शन रूप में लिखा परन्तु अपने उद्योग में वे सर्वथा असफल रहे। खड़ी बोल चाल की कविता का रूप इन लोगों की रचनाओं में अधिकतर अस्पष्ट है और उसके शब्द विन्यास भी अनियम बद्ध पाये जाते हैं। परन्तु पाठक जी के दो ग्रन्थों (एकान्तवासी योगी और श्रान्त पथिक) में उसका रूप बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है और उसके शब्द-विन्याम के नियम भी बहुत कुछ ब्यवस्थित देखे जाते हैं। पाठक जी का हृदय वास्तव में व्रजभापा मय था। उनकी व्रजभापा की रचनायें जितनी हैं बड़ी सरस और सुन्दर है।