पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५५३

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छोड़ी न गजरभत नेक हूं न दोरिया में
रोथ रोंथ रूखी दर भुजिया अघायेरी।
संतन के रेवड़ जो चमरा चरावत हैं
शंकर सो बाने बंद बेदुआ कहाये री।

एक पद्य ऐसा देखिये जिसमें फ़ारसी के मुहावरे और शब्द दोनों कसरत से शामिल हैं:-

बाग़ की बहार देखी मौसिमे बहार सें तो
दिले अन्दलीप को रिझाया गुले तरसे।
हम चकराते रहे आसमाँ के चक्कर में
तौभी लौ लगी ही रहो साह के सहर से।
आतिशे मुसीबत ने दूर की कुदरत को
बात की नबान मिली लज्ज़ते शकर से।
शंकर नतीजा इम हाल का यही है बस
सच्ची आशिकी में नफ़ा होता है ज़रर से।

एक उर्दू पद्य देखिये जो हसब हाल है: -

बुढ़ापा नातवानी ला रहा है।
ज़माना ज़िन्दगी का जा रहा है।
किया क्या ख़ाक आगे क्या करेगा।
अख़ीरी वक्त दौड़ा आरहा है।

इस खड़ी बोली के उत्थान के समय में व्रजभाषा के कवियों की कमी नहीं है। इस समय भी व्रजभाषा के सुकवि उत्पन्न हुये और उन्हाें ने उसी की संवा आजन्म की। उनमें से जो दो अधिक प्रसिद्ध हैं वे हैं लाला सीताराम बी° ए° और स्वर्गीय रायदेवी प्रसाद पूर्ण। लाला सीताराम बी° ए° बहुभाषाविद् हैं । उनको संस्कृत, अंगरेज़ी, फ़ारसी, अरबी आदि