पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५५६

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मेघ गरजत मनहुँ पावस भूप को दल सकल।
विजय दुंदुभि हनत जग में छीनि ग्रीसम अमल।

२— तुम्हरे अद्भुत चरित मुरारी।
कबहूं देत विपुल सुख जग में कबहुँ देत दुख झारी।
कहुँ रचि देत मरुस्थल रूखो कहुँ पूरन जल रासि।
कहुँ ऊसर कहुँ कुंज विपिन कहुँ कहुँ तम हूँ परकास।

३— माता के समान पर पतिनी विचारी नहीं,
रहे सदा पर धन लेन ही के ध्यानन मैं।
गुरुजन पूजा नहीं कीन्हीं सुचि भावन सों,
गीधे रहे नानाविधि विषय विधानन मैं।
आपुस गँवाई सबै स्वारथ सँवारन मैं,
खोज्यो परमारथ न वेदन पुरानन मैं।
जिनसो बनी न कछु करत मकानन मैं,
तिनसों बनैगी करतूत कौन कानन मैं।

उनका एक बिरहा भी देखिये :—

१— अच्छे अच्छे फुलवा बीन री मलिनियाँ
गूंधि लाओ नाके नीके हार।
फूलन को हरवा गोरी गरे डरिहौं
सेजिया में हाइ है बहार।