पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५६४

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आतियां जातियां जो साँसें हैं।
उनके बिन ध्यान यह सब फांसें हैं।

बात यह है कि इंशा इनको हिन्दी का पद्य ही समझते हैं। शिष्ट भाषा में लिखे जाने के कारण वे उनको उर्दू नहीं मानते। यदि वे उनको उर्दू मानते तो उन्हें अपने ठेठ हिन्दी के ग्रन्थ में स्थान न देते। उनका सोचना ठीक था। जो उन पद्यों को उर्दू कहते हैं वे यह समझते ही नहीं कि हिन्दी किसे कहते हैं। तद्भव शब्दों में लिखी गयी हिन्दी वास्तविक हिन्दी है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द मिल जाँय तो भी वह हिन्दी है। उर्दू उसको किसी प्रकार से नहीं कहा जा सकता। बोलचाल के उर्दू शब्द मिल जाने पर भी वह हिन्दी ही रहेगी, उर्दू तब मी न होगी। अधिकतर फ़ारसी अ़रबी के शब्द मिलने ही पर उसको उर्दू नाम दिया जा सकेगा। फिर भी वह हिन्दी का रूपान्तर मात्र है। क्योंकि जब तक क्रिया, कारक, सर्वनाम हिन्दी के रहेंगे तब तक कुछ अन्य भाषा के शब्द उसके हिन्दी कहलाने का अधिकार नहीं छीन सकते। मुझको इसकी चर्चा यहाँ इस लिये करनी पड़ी कि इस शताब्दी के आरम्भ में खड़ी बोली को पद्य रचना का विषय कितना विवादास्पद था। इस समय यह विषय बहुत स्पष्ट हो गया है, पर अब भी अधिकतर खड़ी बोलचाल की हिन्दी कविता में तत्सम संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग होता है। मेरा विचार है कि अब वह समय आ गया है कि सरल और तद्भव शब्दों ही में खड़ी बोली की कविता की जावे, जिसमें कहीं कहीं कोमल मधुर एवं सरस संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी हो। मैंने अपने चुभते चौपदे, चोखे चौपदे, बोलचाल, नामक ग्रंथों की रचना इसी आदर्श पर की है।

पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के उपगन्त बहुत से खड़ी बोली के कवि हिन्दी संसार के सामने आये। उनमें कुछ ऐसे हैं जिन्हों ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं उनकी चर्चा यहां कर देना आवश्यक समझता हूं। इन कवियों में अधिकतर पं° महावीर प्रसाद द्विवेदी