पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५७

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एक स्थान से भ्रंश होकर जिसका पतन होता है, वही अपभ्रंश कहलाता है (दे० पृकृतिवाद पृ० ४२) आर्ष शब्दों के बिगड़ने से ही, प्राकृत-भाषा, और अपभ्रंश की उत्पत्ति हुई है. इसीलिये उनका उल्लेख संस्कृत ग्रन्थों में इसी रूप में किया गया है। गरुड़ पुराण में तो यहां तक लिख दिया गया है-

(पूर्व खण्ड ६८, १७ --

• लोकायतम् कुतर्कश्च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् ।

न श्रोतव्यं द्विजेनैतद्धोनयति तद् द्विजम् ॥

एक स्थान पर अपभ्रंश के लिये यह लिखा गया है....

आभीरादि गिरः काव्ये अपभ्रंशगिरः स्मृताः ।

परन्तु स्वाभाविक नियम का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता । अपभ्रंश का बहुत अधिक प्रचार हुआ, और उसमें रचनायें भी हुई। कुछ काल तक उसकी ओर पठित समाज की अच्छी दृष्टि नहीं रही, परन्तु ज्यों ज्यों उसका प्रसार होता गया, त्याें त्याें दृष्टिकोण भी बदलना गया, और उसको साहित्य में स्थान मिलने लगा। कुछ विद्वानों का विचार है कि दूसरी शताब्दी में उसकी रचना आरम्भ हो गई थी, और उस काल की कुछ प्राकृत रचनाओं में वह मिलती है, परन्तु अधिक लोग इस सम्मति को नहीं मानते। इन लोगों का कथन है कि अपभ्रंश की साहित्यिक रचनायें छठी शताब्दी से ही प्रारम्भ होती है। श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी डाक्टर ग्रियर्सन के लेखों के आधार पर बनी अपनी 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति' नामक पुस्तक में यह लिखते हैं-

"छठे शतक में अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। ग्यारहवें शतक के आरम्भ तक इस तरह की कविताके प्रमाण मिलते हैं । इस पिछले अर्थात् ग्यारहवें शतक में अपभ्रंश भाषाआ का प्रचार प्रायः बन्द हो चुका था।"

• “सम्वत् ६६० में देवसेन नामक एक जैन ग्रन्थकार हो गये हैं, दोहों में उनके बने दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, एक का नाम है 'श्रावकाचार' और दूसरे का 'दब्बसहावपयास' इन दोनों ग्रन्थों की भापा अपभ्रंश कही जा