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सकती है। अपभ्रंश की अधिकांश रचना दोहों में ही मिलती है।

वौद्धमत के महायान सम्प्रदाय की एक 'सहजिया' नामक शाखा है. यह शाखा विक्रमी चौदहवें शतक में मौजूद थी, उनकी कुछ पुरानी पोथियों का संग्रह महा० म० श्रीहर प्रसाद शास्त्री ने “वौद्धगानओ दोहा” नाम से निकाला है, उसमें कन्ह और सरह के दोहे अपभ्रंश भाषा में लिखे गये प्रतीत होते हैं।

हेमचन्द्र प्राकृत भाषा के बहुत बड़े वैयाकरण हो गये हैं, वे विक्रमी बारहवें शतक में मौजूद थे, उन्हों ने 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन, नामक प्राकृत भाषा का एक बड़ा व्याकरण बनाया है, उसमें अपभ्रंश भाषा के अनेक दोहे उदाहरण में लिखे गये हैं, उन दोहों में से कुछ उनके पहले के भी हैं।

विक्रमी तेरहवें शतक में (१२४१) सोमप्रभसूरि नामक एक जैन विद्वान् ने 'कुमार प्रतिबोध' नामक एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें भी अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं, जिनमें से कुछ उनके बनाये हैं और कुछ प्राचीन हैं।

विक्रमी चौदहवं शतक (१३६१) में जैनाचार्य मेरुतुग ने 'प्रवन्ध- चिन्तामणि' नामक एक संस्कृत ग्रन्थ बनाया, इसमें भी वीच वीच में अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं । स्थान स्थान पर मालवराज मुजके रचे अपभ्रंश दोहे भी इसमें देखे जाते हैं।

नलसिंह भट्ट भी चौदहवें शतक में हुआ है, इसका बनाया 'विजयपाल रासो' अपभ्रंश में लिखा गया है । पन्द्रहवें शतक में मैथिल कोकिल विद्या- पति ने भी दो ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में लिग्वे, 'कीर्तिलता, एवं 'कीर्तिपताका' परन्तु इनकी रचनाओं में उनके समय में प्रचलित देशभापा का ढंग भी पाया जाता है, उसमें प्रायः संस्कृत के तत्सम शब्द भी मिल जाते हैं, जो प्राकृत परम्परा के विरुद्ध हैं।,, *

इन अवतरणों में पाया जाता है कि ग्यारहवें शतक में ही अपभ्रंश का

  • देखो हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ट ७ ता० १७