पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५७२)

और अनन्य भक्त थे। परंतु दुःख है कि उनका स्वर्गवास हो गया। उनका नाम था पंडित सत्यनारायण, उपाधि थी कविरत्न। वे बड़े ही होनहार थे। परन्तु अकाल काल-कवलित हो जाने से वह सुधा-स्रोत बन्द हो गया जो प्रवाहित हो कर श्रोताओं में संजीवन रस का संचार करता था। मैं क्रमशः इन तीनों कवियों के विषय में कुछ लिख कर इनका परिचय आप लोगों को देना चाहता हूँ।।

१- बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर की गणना इस समय के व्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों में है। वास्तव में व्रजभाषा पर उनका बड़ा अधिकार है और वे उसमें बडी सुन्दर और सरस रचना करते हैं, उन्होंने व्रजभाषा के कई ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें 'गंगा-वतरण' अधिक प्रसिद्ध है। आप ग्रेजुएट हैं, फ़ारसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान रखते हैं। उर्दू शायरी अच्छी कर सकते हैं। खड़ी बोलचाल की कविता करने में भी समर्थ हैं, किन्तु व्रजभाषा में उनकी कुछ ऐसी अनन्य भक्ति है कि वे अन्य भाषाओं में रचना करना पसंद नहीं करते। उन के हृदय की यह प्रतिध्वनि है:-

"रह्यो उर में नाहिंन ठौर।
नंद नंदन त्यागि कै उर आनिये केहि और।"
"ऊधो मन न भयो दस बीस।
इक मनहुतो स्याम सँग अटक्यो कौन भजै जगदीस।"

भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति गोपियों का जो भाव है वहीं भाव रत्नाकर जी का व्रजभाषा के प्रति है। उनकी व्रजभाषा की रचना मर्मभरी, ओजस्विनी और सरस होती है। उन्होंने आजन्म इसी भाषा की सेवा की है और अब तक इसी की समर्चना में संलग्न हैं। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं:

बोधि बुधि बिधि के कमंडल उठावत ही
धाक सुर धुनि की धँसी यों घट घट मैं ।