पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५८९

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तू धन मैं लोभी तू सर्वस मैं अति तुच्छ सखा तेरा।
सब प्रकार से परम सनेही मैं तेरा हूं तू मेरा।
देखी प्यारे गगन तल में लालिमा ज्यों प्रभा की।
धाया त्योही समझ कर मैं हाथ तेरे गहूंगा।
ठंडा होगा हृदय पर हा! नाथ धोखा दिया क्यों।
मेरा ही है रुधिर उसमें दुग्ध जो था बहाया।

३- जो फूल असमय कुम्हला कर सहृदय मात्र को व्यथित कर जाता है, पंडित सत्यनारायण कविरत्न वही प्रसून हैं। वे एक होनहार युवक थे और बड़ी तन्मयता के साथ व्रजभाषा देवो की सेवा में निरत थे। व्रज-भाषा से उनको इतना अधिक प्रेम था कि जब वे व्रजभाषा की करुण कथा किसी सभा या किसी उत्सव में अपने सुस्वर और सुमधुर कण्ठ से सुनाते तो सुनने वालों को मन्त्र-मुग्ध बना लेते थे। थोड़े ही समय में उन्होंने अच्छी ख्याति भी पायी। वे बी० ए० तक शिक्षा-प्राप्त थे और हिन्दी भाषा पर बड़ा अधिकार रखते थे। संस्कृत का ज्ञान भी उनका अच्छा था। जैसी उनकी रहन-सहन-प्रणाली सादी थी वैसा ही उनका जीवन भी सादा था। बड़े विनीत थे, और नम्र भाव उनके हृदय का प्रधान सम्वल था। उनकी कविताओं में उनका यह भाव स्फुटित होता रहता था। उन्होंने कई संस्कृत नाटकों का सरस व्रजभाषा में अनुवाद किया था, दो तीन उनके व्रजभाषा के पद्य ग्रन्थ भी हैं। बडी सरस और टकसाली व्रजभाषा लिखते थे। शुद्ध व्रजभाषा लिखने की धुन में कभी कभी ग्रामीण व्रजभाषा शब्द का प्रयोग भी कर जाते थे, जिसमें कहीं कहीं उनकी रचना में जैसी चाहिये वैसी सुबाधता नहीं रह जाती थी। व्रजभाषा की सेवा के विषय में उनके बहुत बड़े बड़े विचार थे किन्तु उसकी पूर्ति किये बिना ही वे धराधाम से उठ गयें। सच है man Proposes God disposes, मेरे मन कछु और है करता के मन और। उनकी कुछ कवितायें नीचे लिखी जाती है:-