पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५९१

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अलबेली कहुं बेलि द्रु मन सों लिपटि सुहाई।
धोये धोये पातन की अनुपम कमनाई।
चातक सुक कोयल ललित बोलत मधुरे बोल।
कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल।

निरखि घन की छटा।

इंद्र धनुष अरु इंद्र बधूटिनि की सुचि सोभा।
को जग जनम्यो मनुज जासु मन निरखि न लोभा।
प्रिय पावन पावस लहरि लहलहान चहुँ ओर।
छाई छबि छिति पै छहरि ताको ओर न छोर।

लसै मन मोहना।

४- इस खड़ी बोली के समुन्नत काल में जिन युवकों ने व्रजभाषा की सेवा करना ही अपना ध्येय बना रक्खा है, जो उसकी कीर्ति-ध्वजा के उत्तालन करने में आज भी आनंदानुभव करते हैं, उनमें पंडित रामशंकर शुक्ल एम० ए० प्रधान है। इन्होंने प्रयाग में व्रजभाषा की हित-चेष्टा से एक रसिक मण्डल नामक संस्था ही स्थापित कर रक्खी है। वे और उनके लघु भ्राता पं० रामचन्द्र शुक्ल सरस उसकी वृद्धि करने और उसको प्रभाव शाली बनाने में आज भी जी से यत्नवान हैं। सौभाग्य से उनको व्रजभाषा प्रेमियों का एक दल भी प्राप्त हो गया है जो इस सत्कर्म में उनको यथेष्ट सहायता कर रहा है। इस दल में डॉक्टर राम-प्रसाद त्रिपाठी एम० ए० और पं० युगल किशोर जुगुलेश बी० ए० ऐसे सहृदय और विद्वज्जन भी सम्मिलित हैं। त्रिपाठी जी इसके सभापति और सच्ची लगन के साथ उसका समुन्नत बनाने में सचेष्ट है। पं० राम शंकर का उपनाम 'रसाल' है। वास्तव में 'रसाल' रसाल और 'सरस' सरस हैं। इन दोनों बंधुओं की व्रजभाषा की रचनायें सुन्दर सरस और भावमयी होती हैं। इन लोगों की विशेषता यह है कि ये लोग समय की गति पह-