पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५९९

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उधर बिजली कौंधने लगती है। संसार उसकी कल्पना है, कार्यकलाप, केलि और उत्थान पतन रंग-रहस्य। उसके तन नहीं परन्तु भव का ताना, वाना उसी के हाथों का खेल है। वह अंधा है, किन्तु वही तीनों लोक की आँखों का उजाला है। वह देवतों के दाँत खट्टे करता है, लोक को उँगलियों पर नचाता है, और उन गुत्थियों को सुलझाता है, जिनका सुलझाना हँसी खेल नहीं। जहाँ वह रहता है वहाँ की वेदनाओं में मधु-रिमा है, ज्वालाओं में सुधा है, नीरवता में राग है, कुलिशता में सुमनता है और है गहनता में सुलभता। वहाँ चन्द्र नहीं, सूर्य नहीं, तारे नहीं, किन्तु वहाँ का आलोक विश्वालोक है। वहाँ बिना तार की तन्त्री बजती है, बिना स्वर का आलाप होता है, बिना बादल रस बरसता है। और बिना रूप रंग के ऐसे मनोहर अनन्त प्रसून विकसित होते हैं कि जिनके सौरभ से संसार सौरभित रहता है। वहिर्जगत और अंतर्जगत का यह रहस्य है। इनका सूत्र जिसके हाथ में है, उसकी बात ही क्या। उसके विषय में मुंह नहीं खोला जा सकता। जिसने जीभ हिलाई, उसी को मुह की खानी पड़ी। बहुतों ने सर मारा पर सब सर पकड़ के ही रह गये।

सब सही, पर रहस्यभेद का भी कुछ आनन्द है। यदि समुद्र को अगाधता देख कर लोग किनारा करलेते तो चमकते मुक्ता दाम हाथ न आते। पहाड़ों का दुर्गमता विचार कर हाथ पाँव डाल देते तो रत्न-राजि से अलंकृत न हो सकते। लोक ललाम लोकातीत हो, उसकी लीलायें लोकोत्तर हो, उनको लोचन न अवलोक सके, गिरा न गा सके। उनके प्रवाह में पड़ कर विचार धारा डूब जावे मतिनर्ग भग्न हो और प्रतिभा विलीन। किन्तु उनके अवलम्बन भी तो वे ही है। उनका मनन चिन्तन, अवलोकन ही तो उनके जीवन का आनन्द है। आकाश असीम हो, अनन्त हो तो हो, खगकुल को इन प्रपंचो से क्या काम? वह तो पर खोलेगा और जी भर उसमें उड़ेगा। उसके लिये यह सुख अल्प नहीं। पारावार अपार हो, लाखों मीलों में फैला हो अंतर स्पर्शी हो, मीन को इससे प्रयोजन नहीं। वह जितनी दूर में केलि करता फिरता है, उछलता