पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६००

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रहता है उतना ही उसका सर्वस्व है और वही उसका जीवन और अवल-म्बन है। मनुष्य भी अपने भावानुकूल लोक ललाम की कल्पना करता है संसार के विकास में, उसकी विभूतियों में उस लोलामय की लीलायें देखता मुग्ध होता और अलौकिक आनन्दानुभव करता है। क्या इसमें उसके जीवन की सार्थकता नहीं है? मनुष्यों में जो विशेष भावुक होते हैं, वे अपनी भावुकता को जिह्वा परभी लाते हैं, उसको सुमनोपम कान्त पदावली द्वारा सजाते हैं, तरह तरह के विचार-सूत्र में गूथते हैं और फिर उसे सहृदयता सुन्दरी के गले का हार बनाते हैं। इस कला में जो जितना पटु होता है, कार्य्य-क्षेत्र में उसको उतनी ही सफलता हाथ आती है। उसकी कृतियां भी उतनी ही हृदय-ग्राहिणी और सार्वजनीन होती हैं। इसलिये परिणाम भी भिन्न भिन्न होता है। जो जितना ही आवरण हटाता है, जितना ही विषय को स्पष्ट करता है, जितना ही दुर्बोधता और जटिलताओं का निवारण करता है, वह उतना ही सफलीभूत और कृत कार्य समझा जाता है। यह सच है कि ऐसे भाग्यशाली सब नहीं होते। समुद्र में उतर कर सभी लोग मौक्तिक ले कर ऊपर नहीं उठते। अधिकांश लोग घोंघे, सिवार पाकर ही रह जाते हैं। किन्तु इससे उद्योग शीलता और अनुशीलन परायणता को व्याघात नहीं पहुँचता। रहस्य की ओर संकेत किया जा सकता है। उसका आभास सामने लाया जा सकता है हृदय- दर्पण पर जो प्रतिविम्ब पड़ता है अन्तर्दृष्टि उसकी ओर खींची जा सकती है, क्या यह कम सफलता है ? मनुष्य की जितनी शक्ति है, उस शक्ति से यथार्थ रीति से, काम लेने से मनुष्यताकी चरितार्थता हो जाती है, और चाहिये क्या? रहस्य-भेद किसने किया? परमात्मा को ला कर जनता के सामने कौन खड़ा कर सका? तथापि संसार के जितने महज्जन हैं, उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन किया जिससे अनेक गुत्थियां सुलझी। अब भी उद्योग करने से और बुद्धि से यथार्थता पूर्वक कार्य लेने से कितनी गुत्थियां सुलझ सकती हैं। इन गुत्थियोंके सुलझानेमें आनन्द है, तृप्ति है और है वह अलौकिक फल-लाभ जिससे मनुष्य जीवन स्वर्गीय बन जाता है। रहस्यवादकी रचनाओंकी ओर प्रवृत्त होनेका उद्देश्य यही है। जो लोग इस तत्वको यथार्थ