पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६०५

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हैं, जैसे किसी हरे वृक्ष का प्रत्येक अंश उसके जीवन का साधन है, उसी प्रकार साहित्य तभी पुष्ट होता है जब उसमें सब प्रकार की रचनायें पायी जाती हैं, क्योंकि उन सब का उपयोग यथा स्थान होता है। जो कविता आन्तरिक प्रेरणा से लिखी जाती है जिसमें हृतंत्री की झंकार मिलती है, भावोच्छ्वासका विकास पाया जाता है, जिसमें सहृदयता है, सुन्दर कल्पना है, प्रतिभा तरंगायित है, जिसका वाच्यार्थ स्पष्ट है, सरल है, सुवोध है, वही सच्ची कविता है, चाहे जिस विषय पर लिखी गयी हो और चाहे जिस भाषामें हो। कौन उसका सम्मान न करेगा और कहाँ वह आदृत न होगी ? कवि हृदय को उदार होना चाहिये, वृथा पक्षपात और खींच तान में पड़ कर उसको अपनी उदात्त वृत्ति को संकुचित न करना चाहिये। मेरा कथन इतना ही है कि एक देशीय विचार अच्छा नहीं, उसको व्यापक होना चाहिये। किसी फूल में रंग होता है, किसी की गठन अच्छी होती है, किसी का विकास सुन्दर होता है किसी में सुगन्धि पाई जाती है- सब बात सब फूलों में नहीं मिलती। कोई ही फूल ऐसा होता है जिसमें सब गुण पाये जाते हैं। जिस फूल में सब गुण हैं, यह कौन न कहेगा कि वह विशेष आदरणीय है। परन्तु अन्यों का भी कुछ स्थान है और उपयोग भी। इस लिये जिसमें जो विशेषता है वह स्वीकार-योग्य है, उपेक्षणीय नहीं। कला का आदर कला की दृष्टि से होना चाहिये। यदि उसमें उपयोगिता मिल जावे तो क्या कहना। तब उसमें सोना और सुगंध- वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।

कवि-कर्म्म विशेष गुण वाच्यार्थ की स्पष्टता है। प्रसाद गुणमयी कविता ही उत्तम समझी जाती है। वेदर्मी वृत्ति का ही गुण गान अबतक होता आया है। किन्तु यह देखा जाता है कि छायावादी कुछ कवि इसकी उपेक्षा करते हैं और जान बूझ कर अपनी रचनाओं को जटिल से जटिल बनाते हैं, केवल इस विचार से कि लोग उसको पढ़ कर यह समझें कि उनकी कविता में कोई गूढ़ तत्व निहित है, और इस प्रकार उनको उच्च कोटि का रहस्यवादी कवि होनेका गौरव प्राप्त हो । ऐसा इस कारण से भी होता है कि