पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६०७

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कविता में इसकी अधिकता मिलती है। इसी लिये वह अधिक हृदय-ग्राहिणी हो जाती है। छायावादी कवि किसी बात को बिलकुल खोल कर नहीं कहना चाहते। वे उसको इस प्रकार से कहते हैं जिससे उसमें एक ऐसी युक्ति पायी जाती है जो हृदय को अपनी ओर खींच लेती है। वे जिस विषय का वर्णन करते हैं उसकी ऊपरी बातों का वर्णन कर के ही तुष्ट नहीं होते। वे उसके भीतर घुसते हैं और उससे सम्बन्ध रखनेवाली तात्विक बातों को इस सुंदरतासे अंकित करते हैं, जिससे उनकी रचना मुग्धकारिणी बन जाती है। वे अपनी आन्तरिक वृत्तियों को कभी साकार मान कर इनकी बातें एक नायक नायिका की भांति कहते हैं, कभी सांसारिक दृश्य पदार्थो को लेकर उसमें कल्पना का विस्तार करते हैं और उसको किसी देव-दुर्लभ वस्तु अथवा किसी व्यक्ति-विशेषके समान अंकित करते हैं। कभी वे अपनी ही सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में देखते हैं और उसके आधार में अपने समस्त आन्तरिक उद्गारोको प्रकट करते हैं। उनकी वेदनायें तड़पती हैं, रोती-कलपती हैं, कभी मूर्तिमयी आह बन जाती हैं, और कभी जलधरों समान अजस्र अश्रु विसर्जन करने लगती हैं। उनकी नीरवता में राग है, उनके अन्धकार में अलौकिक आलोक और उनकी निराशामें अद्भुत आशा का संचार। वे ससीम में असीम को देखते हैं, विन्दु में समुद्र की कल्पना करते हैं, और आकाश में उड़ने के लिये अपने विचारों को पर लगा देते हैं। आलोकमयी रजनी को कलित कौमुदी की साड़ी पहिना कर, और तारकावली की मुक्त माला से सुसज्जित कर, जब उस चन्द्रमुख से सुधा बरसाते हुये वे किसी लोकरंजन की ओर गमन करते अंकित करते है, तो उसमें एक लोकरंजिनी नायिका-सम्बन्धिनी समस्त लीलाओं और कलाओं की कल्पना कर देते हैं, और इस प्रकार अपनी रचनाओं को लालित्य मय बना देते हैं। उनको प्रतिभा विश्वजनीन भावों की ओर कभी मन्थर गति से कभी बड़े बेग से गमन करती है और उनके समागम से ऐसा रस सृजन करती है, जो अनेक रसिको के हृदय में मन्द मन्द प्रवाहित हो कर उसे स्वर्गीय सुख का आस्वादन कराती है। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि उनकी रचना अधिकतर भाव प्रधान (Subjective)