पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६१

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आगे, जिसे हम हिन्दी का पूर्वरूप कह सकते हैं, वही शौरसेनी अपभ्रंश, ठीक उसी प्रकार जैसे आजकल हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी है, एक राष्ट्रीय, साहित्यिक तथा धार्मिक भाषा हुई थी” ।

अब तक जो कुछ लिखा गया, उससे यह बात प्रकट हुई कि किस प्रकार प्राचीन संस्कृत अथवा वैदिक भाषा से प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति हुई. और फिर कैसे प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश भाषाओं का उद्भव हुआ। यह भी वतलाया जा चुका है, कि अपभ्रंश भाषाओं का परिवर्तित रूप ही बर्तमानकालिक बोलचाल की भाषायें हैं, जो आजकल भारतवर्ष के अधिकांश भाग में बोली जाती हैं। हमारो हिन्दी भाषा उन्हों भाषाओं में से बोल- चाल की एक भाषा है। अपना पूर्वरूप बदलकर वह वर्त्तमान रूप में हमारे सामने है। उसका पूर्वरूप क्या था, उसकी कुछ रचनायें देखिये-विदग्ध मुखमण्डनकार ने अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलाई है-

रसि अह केण उच्चाडण किज्जइ।
जुयदह माणसु केण उविजइ ।
तिसिय लोउ खणि केण सुहिजइ ।
एह पहो मह भुवणे विजइ ।
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रसिकों का उच्चाटन किस प्रकार किया जा सकता है, युवतियों का मन किस प्रकार उद्विग्न होता है, तृपितलोक क्षणभर में किस प्रकार मुग्वी बनाया जा सकता है, हमारा यह प्रश्न भुवन को विदित हो ।

रसिअह=रसिकों,कॆण=क्यों, उच्चाडन=उच्चाटन, किज्जइ=किया जाय, जुयदह=युवति, माणस=मानस, उविजइ=ऊवना, तिमिय=तृपित, लोउ= लोक, खणि=क्षण, सुहिज्जइ=सुखित, रह=यह. पहो=प्रश्न, मह=मम, भुवणे=भुवने, विजइ=विदित ।

वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का यह उदाहरण दिया है-

बाह बिछोड़वि जाहि तुई हउँ तेवई को दोसु।
हिय पट्टिय जद नीसरहिं जाणउँ मुज सरोसु॥