पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५६६)

३– पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' छायावादियों में सबसे निराले हैं। यदि प्राचीनों के प्रति किसी छायावादी में कुछ श्रद्धा और प्रेम है तो इन्हीं में। इनमें सहृदयता भी अधिक है। ये सरस और भावमय रचना का आदर करते हैं, वह चाहे जहाँ मिले। इनकी रचनाओं में इस भावकी सच्ची झलक मिलती है। इनमें मनस्विता अधिक है, इस लिये उसका विकास भी इनकी कृतियों में यथेष्ट मिलता है। बंगाल में अधिकतर रहने के कारण उनकी रचनाओं में बंगभाषा के कवियों का भाव और ढंग भी पाया जाता है। भाव प्रकाशन-शैली इनकी गंभीर है किन्तु इतनी नहीं कि वह वोधगम्य न हो। छायावादी कवियों में इनका भी विशेष स्थान है। इनकी दो कविता पुस्तकें भी निकल चुकी हैं, जो सरस और सुन्दर हैं उनके कुछ पद्य देखिये:-

।। गीत ।।

जग का एक देखा तार

कण्ठ अगणित देह सप्तक मधुर स्वर झंकार।
बहु सुमन वहु रंग निर्मित एक सुन्दर हार।
एक मृदु कर से गुँथा उर एक शोभा भार।
गंध अगणित मंद नंदन विश्ववंदन सार।
सकल उर चंदन अलौकिक एक अनिल उदार।
सतत सत्य अनादि निर्मल सकल मुख-विस्तार।
अयुत अधरों में सुसिंचित एक किंचित प्यार।
तत्व नभ-तम में सकल भ्रम शेष प्रेमाकार।
अलक-मंडल में यथा मुखचन्द्र निरलंकार.।

४- पं० मोहन लाल महतो कवि हैं और चित्रकार भी। इस लिये वे चित्रण कला का मर्म पहचानते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं का रंग मनोहर होता है। उसमें भावों का ऐसा सुन्दर विकास होता है कि जटिलता नहीं आने पाता। छायावादी कवि होकर भी प्रांजल कविता