आवश्यक साधन थे उन को भी ग्रहण किया गया। हिन्दी भाषा का वर्तमान रूप बहुत समुन्नत और वह दिन दिन विस्तृत और सुपरिष्कृत हो रही है। किन्तु एक बात मुझको यहाँ और निवेदन कर देने की आवश्यकता ज्ञात होती है। वह यह कि जितना सुगठित, प्रांजल और नियम-वद्ध हिन्दी-गद्य इस समय है, उतना उसका पद्य भाग नहीं। गद्य हिन्दी के अधिकांश नियम भारतवर्ष के उन सब प्रान्तों और भागों में सर्वसम्मति से स्वीकृत हैं जहाँ उसका प्रचार अथवा प्रवेश है। किन्तु पद्य के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। पद्य-विभाग में अभी तक बहुत कुछ मनमानी हो रही है, जिसके मन में जैसा आता है उस रूप में उसको वह लिखता है। मैं पहले बड़ी बोली के कुछ नियम बतला आया हूँ । उन नियमों का अब तक अधिकतर पालन हो रहा है। परन्तु थोड़े दिनों से कुछ लोगों के द्वारा उनकी उपेक्षा हो रही है। यह उपेक्षा यदि भ्रान्ति अथवा बोध की कमी के कारण होती तो मुझको उसकी विशेष रूप से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु कुछ लोग तो जान बूझ कर इस प्रकार के कितने प्रयोग कर रहे हैं, जिनको वे प्रचलित करना चाहते हैं और कुछ लोग इस विचार से ऐसा कर रहे हैं कि वे अपने विचारानुसार भाषा की उन्मुक्त धारा को बंधन में डालना नहीं चाहते। सम्भव है कि कुछ भाषा-मर्मज्ञ इस को अनुचित न समझते हो। परन्तु मेरा निवेदन यह है कि यदि नियमों की आवश्यकता स्वीकृत न होगी तो न तो भाषा की कोई शैली निश्चित होगी और न काव्य शिक्षा-प्रणाली का कोई मार्ग निर्धारित हो सकेगा। किसी विद्या के पारंगत के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु प्रत्येक विद्या और कला सीखनी पड़ती है। कोई किसी विद्या का पारंगत यों ही नहीं हो जाता, पहले उसको शिक्षा-लाभ करने की आवश्यकता होती है। यदि कोई नियम ही न होगा तो शिक्षा-सम्बन्धी इस आरम्भिक जीवन का मार्ग ही प्रशस्त न हो सकेगा। इसी लिये साहित्य और व्याकरण के नियम निश्चित किये गये हैं और उन नियमों का पालन कर के चलने से ही प्रत्येक शिक्षार्थी इष्ट की प्राप्ति कर सका। मैं जानता हूं कि भाषा परिवर्तन-शील है। वह बदलती है और उसके नियम