पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(६०८)

खड़ी बोली का यह नियम है कि उसके कारक के चिन्ह लोप नहीं किये जाते। पहले इस नियम की रक्षा सतर्कता के साथ की जाती थी। किन्तु अब यह देखा जाता है कि इस बात की परवा कम की जाती है, विशेष-कर पद्य के अन्त में। यह ब्रजभाषा का अनुकरण है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार या मुहावरों में जहाँ कारक के चिन्ह लुप्त रहते हैं उनके विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। परन्तु अन्य अवस्थाओं में कारक के चिन्हों का त्याग न होना चाहिये॥

खड़ी बोली में अब तक यह होता आया था कि 'न' का अनुप्रास 'ण' को मान लेते थे। परंतु 'प्राण' के स्थान पर 'प्रान' लिखना पसंद नहीं करते थे। इसी प्रकार युक्त विकर्प को भी अच्छा नहीं समझते थे। अब देखते हैं कि युक्त विकर्प भी होने लगा है। और णकार का नकार किया जाने लगा है। शकार को भी सकार कर दिया जाता है, कभी अनुप्रास के लिये कभी कोमलता की दृष्टि से। जब सकार का अनुप्रास शकार मान लिया गया है तब अनुप्रास के लिये 'शकार' का सकार करना उचित नहीं। शब्द की कोमलता के ध्यान से शकार का सकार होना अच्छा नहीं। क्योंकि ऐसी अवस्था में शब्द की शुद्धता का लोप हो जाता है।

यह देखा जाता है कि अंगरेजी मुहावरों का अनुवाद करके ज्यों का त्यों पद्यों में रख दिया जाता है। जैसे, 'Golden end' का 'स्वर्ण अवसान' Golden dream' का 'स्वर्ण स्वप्न', Golden shadow' का 'कनक छाया', और 'Dreamy splendour' का 'स्वप्निल आभा'। इसका परिणाम यह होता है कि कोई अंगरेज़ी का विद्वान उन अनुवादित मुहावरों का अर्थ भले ही समझ ले, परन्तु अधिकांश हिन्दी भाषा भाषी जनता उसको नहीं समझ सकती। इसका कारण पद्य की जटिलता और दुरूहता होती है। इसलिये इस प्रकार का प्रयोग बांछनीय नहीं। एक भाषा के मुहावरे का अनुवाद दूसरी भाषा में नहीं होता। इसका नियम यह है कि या तो उसका भाव अपनी भाषा में रख दिया जाय अथवा उसी भाव का द्योतक कोई मुहावरा अपनी भाषा का चुन कर पद्य में रखा