पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६२४

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बोलचाल में तो इनका स्थान है ही नहीं, कवि-परम्परा में भी ऐसे प्रयोग गृहीत नहीं हैं फिर कहिये इस प्रकार का प्रयोग यदि किया जाता है तो उसको निरंकुशता छोड़ और क्या कह सकते हैं। जहाँ दोषों की गणना की गयी है वहां एक दोष 'अप्रयुक्त' भी माना गया है। जिसका प्रयोग न हुआ हो, उस शब्द या वाक्यका प्रयोग करना ही अप्रयुक्त दोष कहलाता है। जैसा वाक्य मैंने ऊपर लिखा है, इस प्रकार का वाक्य-विन्यास तो अप्रयुक्त दीप से भी दो कदम आगे है। फिर भी आजदिन इस प्रकार के प्रयोग होते हैं। मेरा विचार है कि ऐसे प्रयोग चाहे नवीन आविष्कार कहलायें और प्रयोग कर्त्ता के सिर पर नवीन आविष्कारक होने का सेहरा बांध दें, परन्तु भाषा में ऐसा विप्लव उपस्थित करेंगे, जिससे वह पतनोन्मुख होगी और उसका स्थान कोई दूसरी उन्नतिशील और सुगठित भाषा ग्रहण कर लेगी। हम इस प्रकार के प्रयोगों को चमत्कृत बुद्धि का विलास नहीं कह सकते। और न वह विलक्षण प्रतिभा की ही विभूति है। हां, उसे किसी अवांछनीय मनोवृत्ति का फल अवश्य मान सकते हैं। यह मैं मानूंगा कि इस प्रकार की निरंकुशता और उच्छृंखलता होती आयी है। यदि ऐसा न होता तो 'निरंकुशाः कवयः' क्यों कहा जाता? सब भाषाओं में ऐसे लेखक और कवि मिलते हैं कि नियम वद्धता होने पर भी उनके विषय में यह कहावत चरितार्थ होती है- मुरारेः तृतीयः पन्थाः। यह मान भी लें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सब बातों की सीमा होती है। सीमोल्लंघन होना अच्छा नहीं होता। दूसरी बात यह कि निरंकुशता निरंकुशता ही है उन पर निन्दनीयता की मुहर लगी हुई है। वह नियम के अन्तर्गत नहीं है, अपवाद है। यदि उच्छृंखलता, एवं निरंकुशता की उपेक्षा होती तो समालोचना-प्रणाली का जन्म ही न होता। समालोचना का कार्य्य यही है कि वह इस प्रकार की नियम-प्रतिकूलता को साहित्य में स्थान न ग्रहण करने दें। जिससे किसी व्यक्ति विशेष का इस प्रकार का अनियम अन्यों का आदर्श बन सके। यह भी देखा गया है कि समालोचना के आतंक ने उनको भी सावधान कर दिया है, जो निरंकुश कहलाने ही में अपना गौरव समझते थे। सारांश यह कि साहित्य के