पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६३२

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आचारज रुषीकेस धनंत्रि अप्लन तमने का का जीनं के दुबा की आरामं च ओजोन के रीजं में रोकड़ रुपीआ ५०००) तुमरे आहाती गोड़े का षरचा सीवाअ आवेंगे। खजानं से इनको कोई माफ करेंगे जीन को नेर को के अधंकारी होवेंगे सई दुवे हुकुम के हउमंत राअ संमत ११४५ वर्षे आसाढ़ सुदी १३"

इस प्रकार के परवाने हिन्दू राज दरवारों में राज्य की ओर से निकला करते थे। इनकी भाषा तो राजस्थानी है ही, किंतु उसमें एक बात उल्लेखनीय है। उसमें 'लेवेगा', 'जायगा', 'करेगा', 'लाया' आदि खड़ी बोली की क्रियाओं का व्यवहार किया गया है। ये लेख आनंद संवत् के अनुसार क्रमशः सं॰ १९३९ और सं॰ १९४५ में लिखे गये। इनमें ९० जोड़ देने से विक्रमी सं॰ क्रमशः १२२९ और १२३५ हुआ। अतएव स्पष्ट है कि ईस्वी सन् के अनुसार ये बारहवीं शताब्दी में पड़ते हैं। इस समय के पूर्व भारतवर्ष में मुसलमानों और हिन्दुओं का सम्पर्क हो चुका था, विशेष कर मुसल्मानों और राजपूतों का सम्बन्ध युद्ध के कारण प्रायः होता ही रहता था। खड़ी बोली की जिन क्रियाओं की चर्चा ऊपर की गयी है वे इसी सम्पर्क का फल जान पड़ती

राजस्थानी बोलीके इस गद्य को अधिक विकसित होनेका कोई अवसर नहीं मिला। कारण वही क्षेत्र विस्तार का अभाव! इस ओर से निराश हो कर हिन्दी गद्य को किसी अन्य दिशा में पनपने की प्रतीक्षा करनी पड़ी। चौदहवीं शताब्दी में ऐसा समय भी आ गया, सातवीं शताब्दी से ले कर बारहवीं शताब्दी तक बौद्धों के असंयत जीवनके कलुषित आदर्श से हिन्दू समाज म्लान हो रहा था। स्वामी शंकराचार्य ने बौद्धमत के पाँव तो उखाड़ दिये थे, किन्तु उसके मूल सिद्धान्तों, उपदेशों आदि को भूल कर उच्छृंखल जीवन व्यतीत करनेवाले सिद्धों तथा अन्य साधुओं पर से समाज की श्रद्धा का सर्वथा लोप करा देने का अवकाश और अवसर उन्हें प्राप्त नहीं हो सका था। यह काम सन् १३५० ई॰ के लगभग महात्मा गोरखनाथ ने किया। उन्हों ने सदाचार और धर्म के तत्व