पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६३३

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की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया और इसी सूत्र से हिन्दी के गद्य-साहित्य की सृष्टि कर प्रथम हिन्दी-गद्य-लेखक के रूप में वे कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुये।

गुरु गोरखनाथ की पद्य की भाषासे गद्यकी भाषामें कुछ विशेषता है। पद्य की भाषा में उन्हों ने अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग किया है। किन्तु गद्य की भाषा में यह बात नहीं है, वह कहीं कहीं राजस्थानी मिश्रित व्रजभाषा में है। उसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग अवश्य मिलता है। यह बात आप नीचे के अवतरण को देख कर सहज में ही समझ सकेंगे :—

"सो वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुको, अरु संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि को दै चुकौ, अरु सहस्र जग करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अझ पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकौ, जा मनुष्य के मन छन मात्र ब्रह्म के विचार बैठो।,

'श्री गुरु परमानन्द तिन को दण्डवत है। हैं कैसे परमानन्द आनन्द स्वरूप है सरीर जिन्हि कौ। जिन्हों के नित्य गाये ते सरीर चेतन्नि अरु आनन्दमय होतु है। मैं जु हौं गोरप सो मछन्दरनाथ को दण्डवत करत हौं। हैं कैसे वै मछन्दरनाथ। आत्मा जाेति निश्चल है, अन्तहकरन जिन्ह कौ अरु मूल द्वार तैं छह चक्र जिन्हिं नीकी सरह जानैं। अरु जुग काल कल्प इति को रचना तत्व जिनि गायो। सुगन्ध को समुद्र तिन्हि कौ मेरी दण्डवत। स्वामी तुम्हें तो सत गुरु अम्है नौ सिपसबद एक पुछिबा दया करि कहिबा मनि न करिबा रोस।"

उक्त अवतरण में 'सम्पूर्ण', 'प्राप्त', 'मनुष्य', 'कल्प', 'स्वरूप', 'नित्य', 'सन्तुष्ट', 'स्वर्ग', 'ब्रह्म', 'निश्चल', 'समुद्र', 'रचना', 'तत्व', आदि शब्द संस्कृत के हैं। 'पुछिबा', कहिबा', करिबा', 'अम्है' आदि शब्द राजस्थानी बोली के हैं। अवतरण का शेष भाग प्रायः पूरा का पूरा शुद्ध व्रजभाषा में लिखा गया है।