पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६३५

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१—"ऐसौ पद श्री आचार्य जी महाप्रभून के आगे सूरदास जी ने गांयौ से सुनि के श्री आचार्यजी महाप्रभून ने कह्यौ जो सूर ह्वै के ऐसो घिंधियात काहै को है कछू भगवल्लीला वर्णन करि। तब सूरदास ने कह्यौ जो महाराज हौं तो समझत नाहीं। तब श्री आचार्यजी महाप्रभून ने कह्यौ जो जा स्नान करि आउ हम तोकों समझावेंगे तब सूरदासजी स्नान करि आये तब श्री महाप्रभू जी ने प्रथम सूरदास जी को नाम सुनायौ पाछें समर्पण करवायौ और फिर दशम स्कंध की अनुक्रमणिका कही सो ताते सब दोष दूर भयें। तातै सूरदास जी कौ नवधा भक्ति सिद्ध भयी। तब सूरदास जी ने भगवल्लीला वर्णन करी।"

२—"सो श्री नन्दग्राम में रहतो हतो। सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पठ्यो हतो। सो जितने पृथ्वी पर मत है सब को खण्डन करतो ऐसो वाको नेम हतो। याही ते सब लोगन वाको नाम खण्डन पायो हतो। सो एक दिन श्री महाप्रभू जी के सेवक वैष्णवन की मण्डली में आयो। सो खंडन करन लाग्यो। वैष्णवन ने कहो जो तेरो शास्त्रार्थ करनो होवै तो पंडितन के पास जा हमारी मंडली में तेरे आयबे को काम नाहीं। इहां खंडन मंडन नहीं है।"

३—"नन्ददास जी तुलसी दास के छोटे भाई हते। सो विनकूं नाच तमासा देखबे को तथा गान सुनबे को शोक बहुत हतो।"

गोस्वामी गोकुलनाथ की भाषा में फ़ारसी के शब्द भी आये हैं— यह बात ऊपर दिये गये तृतीय अवतरण के 'तमासा' और 'शोक' आदि शब्दों को देखने से प्रमाणित होती है। उसमें गोस्वामी विट्ठलनाथ की अपेक्षा अधिक विशुद्ध व्रजभाषा लिखने का प्रयत्न भी किया गया है। यह बात गोस्वामी विट्ठलनाथ जी और गोकुलनाथ जी के कुछ क्रियापदों की तुलना करने से स्पष्ट हो जायगी। जहाँ गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने त्यजंत भयी और 'कहत भयी' आदि लिखा है वहां गोकुलनाथ ने 'लगनाे', धातु के भूत काल के रूप में 'लगत भयी' न लिख कर 'लाग्यौ' ही लिखा है। फिर भी दोनों