पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६५७)

कार्य्य करने में संलग्न थे। पं॰ गोबिन्द नारायण मिश्र और पं॰ बदरी नारायण चौधरी को फ़ारसी अ़रबी के शब्दों के प्रति कुछ भी आकर्षण नहीं था। परन्तु भट्ट जी फ़ारसी अ़रबी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में स्वतंत्रता सं करते थे। उक्त दोनों महाशय राजा लक्ष्मण सिंह की भांति फ़ारसी अरबी शब्दों को अपनी रचना में स्थान नहीं देना चाहते थे। यह दूसरी बात है कि किसी अवसर पर वे उन भाषाओं के किसी प्रचलित शब्द को अपनी रचनाओं में स्थान दे देवें. परन्तु प्रायः वे उनसे बचते थे। भट्टजी पं॰ प्रताप नारायण की तरह इस बात की परवा नहीं करते थे। यदि उनको उक्त भाषा का कोई प्रचलित शब्द भाषा प्रवाह के अनुकूल ज्ञात होता था, तो वे उसका प्रयोग निस्संकोच भाव से करते थे। वे पं॰ प्रताप नारायण को भांति ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी कर जाते थे। भाषा शैली के विषय में भट्टजी का और पं॰ प्रताप नारायण का प्रायः एक मार्ग है और चौधरी जी का एवं मिश्र जी का एक। ये लोग बाबू हरिश्चन्द्र के ही सहयोगी हैं. और उन्हों की शली का प्रायः अनुसरण करते हैं। परन्तु स्वतंत्र विचार होने के कारण सभी कुछ न कुछ स्वतंत्रता रखते हैं। माला सबा की एक प्रकार की है, किन्तु फलों में और सजावट में अवश्य कुछ भिन्नता दृष्टिगत होती है। भट्ट जी के कुछ गद्य देखियेः

१-"इस आँसू में भी भेद है। कितनों का पनीला कपार होता है,वात कहते रो देते हैं। अक्षर उनके मुंह से पीछे निकलेगा. आँसुओं की झड़ी पहले ही शुरू हो जायगी। स्त्रियों के जो बहुत आँसू निकलता है.मानो गेना उनके यहां गिरा रहता है. इसका कारण यही है कि वे नामही की अबला और अधीर हैं। दुःख के वेग में आंसू को रोकने वाला केवल धोरज है। उसका टोटा यहाँ हरदम रहता है. तब इनके आंसू का क्या ठिकाना है। सत्वशालो धीरज वालों को आंसू कभी आता ही नहीं । कड़ी से कड़ी मुसीबत में दो चार क़तरे आंसू के मानो बड़ी बरकत हैं। बहुत मौकों पर आंसू ने ग़ज़ब कर दिया है। सिकंदर का कौल था कि