पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६७४

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पांचवां-प्रकरण।
प्रचार-काल।
   यह प्रचार-काल बाबू हरिश्चन्द्र के समय से हो प्रारंभ होता है. परन्तु वह विस्तृत एवं व्यापक उनके म्वगारोहण के बाद हुआ। किसी भाषा के प्रचार कार्य के साथ समाचार-पत्रों एवं मासिक-पत्रों आदि का घना सम्बन्ध है। इसी प्रकार प्रचारकों और पुस्तक प्रणेताओं से भी उसका गहरा सम्पर्क है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि प्रतिभाशाली लेखकों ने हिन्दी भाषा की सर्वतोमुखी उन्नति के लिये उद्योग शील होकर, साहित्य की जो धारा उन्नतिकाल में बहा दी थी. प्रचारकाल में द्विगुणित वेग से वह गतिवती हुई।
 
   इस काल में यदि एक ओर स्वामी दयानन्द सरस्वती के कुछ अनुयायो हिन्दी गद्य को अपने धार्मिक ग्रंथा की ग्चनाओं द्वाग अग्रसर बनाने में तत्पर थे तो. दूसरी ओर बाबू हरिश्चन्द्र के अनेक सम सामयिक विविध प्रकार के साहित्य पुस्तकों का प्रणयन कर उसको संवाके लिये कटिबद्र थे । कचहरियों में हिन्दी भाषा को स्थान दिलाने का उद्योग भी इसी समय में प्रारंभ हुआ, अतएव इस सूत्र में भो अनेकों सभा सोमाइटियों का जन्म हुआ। इनका उद्देश भी हिन्दो का प्रचार और विस्तार था। सनातन-धर्मियों का एक विशाल दल भो इस समय इस कार्य में लग्न हुआ। आर्यसमाज की प्रतिद्वंदिता के कारण उन पंडिता ने भी हिन्दी भाषा में ग्रंथ रचना के लिये लवनी पकड़ी, जिन्हों ने आजीवन संस्कृत देवी की आराधना का ही व्रत ग्रहण कर लिया था। फिर क्या था अनेक पत्र-पत्रिकायें निकली. नाना प्रकार के प्रथ बने और तरह तरह के आन्दोलन उठ खड़े हुये । मैं क्रमशः सबका वर्णन करूंगा।
  १-५० भीमसेन शर्मा स्वामी दयानन्द सरस्वती के शिष्य थे। अपने जीवनकाल में वे स्वामी दयानन्द के आन्दोलन से बहुत दिनों तक सम्बद्ध रहे, जिसका परिणाम यह हुआ कि संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का