पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६७६

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बोधक निमित्त कारण उस जाति को प्राप्त नहीं है । इसी कारण ऐसे साधन हीन वंशों में उच्चकोटि के विचारवान मनुष्यों का सदाही अभाव दीखता है। विचार का स्थान है कि मेवाड़ के महाराणा वीरों ने म्लेच्छों के समक्ष शिर नहीं झुकाया, तथा अन्य सभी राजाओं ने शाशक यवनों की अधीनता स्वीकार की। इसका कारण बंश परम्परागत आत्म गौरव ही था।"

   इन दोनों अवतरणों को देख कर आप को पता चल गया होगा कि पण्डितजी की प्रवृत्ति किस प्रकार की भापा लिखने की ओर थी, उनकी भाषा परिष्कृत है, परन्तु है संस्कृतगर्भित । आज कल ऐसी ही भाषा का अधिक प्रचार है, इसलिये हम यह कह सकते हैं कि इस शैली को प्रचलित और पुष्ट करनेवाले पुरुषों में प्रथम स्थान पण्डितजी ही का है। उनमें इस प्रवृत्ति का उदय होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रथम तो वे संस्कृत केे विद्वान थे, दूसरे वे उन लोगों में थे नो विजातीय भाषा के शब्दों को ग्रहण करना युक्ति संगत नहीं मानते थे। उनका विचार था ऐसा करना रूपान्तर से अपनी भाषा की न्यूनता स्वीकार करना है। अन्यों से इस विषय में वे अधिक कट्टर थे । वे विदेशी और बिजातीय भाषा के शब्द न लेने की चर्चा करते हुये, एक स्थान पर यह लिखते हैं:
  "शिकायत शब्द अन्य भाषा का है। परन्तु हिन्दी भाषा में विशेष रूप से प्रचलित हो गया है। यदि इस शब्द के स्थान में उपालम्भ का प्रयोग करने की रुचि नहीं है और यह इच्छा है कि इसी अर्थ का बोधक इसी से मिलता हुआ संस्कृत शब्द हो तो वसे शब्द भी संस्कृत भाषा की अद्भन शक्ति होने से हमको प्राप्त हो सकते हैं, जिनका स्वरूप, ओर अर्थ दोनों मिल सकते हैं, जैसे शिक्षा यत्न' वा शिक्षा यंत्रि' । जिस मनुष्य की शिकायत की जाती है उसको कुछ शिक्षा वा दण्ड देने वा दिलाने का अभिप्राय होता है। जिससे वह आगे वैसा न करें, इससे शिकायत'शब्द के स्थान में शिक्षायत्न शब्द का प्रयोग उचित है
 इस अवतरण में यह शिक्षा है कि यदि आवश्यकता वश विदेशो अथवा