पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६८६

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विचारे को क्या चलती है। जो पराधीन होने ही से प्रसन्न रहता है और सिसुमार की शरण जा गिरने का ही जिसे चाव है। हमारा पिता अत्रिपुर में बैठा हुआ वृथा रमावती नगरी की नाम मात्र प्रतिष्ठा बनाये है। नौपुर की निबल सेना और एक रोति संचारिणी सभा जो निष्फल युद्धों से शेष रह गई है वह उसके सङ्ग है।"

  ५१-५० केशो राम भट्ट इस प्रचार काल के हो एक प्रसिद्ध हिन्दी सेवक हैं। उन्हों ने बिहार वन्धु नामक एक सप्ताहिक पत्र बिहार से ही निकाला था, जो कुछ दिनों तक वहाँ सफलता पूर्वक चलता रहा। उन्होंने सज्जाद संबुल और शमशाद सौसन नामक दो नाटक भी बनाये थे और एक व्याकरण ग्रन्थ भो। यह व्याकरण ग्रंथ उस समय हिन्दी संसार में आदर की दृष्टि से देखा गया था। उनके दोनों नाटक भी अच्छे हैं परन्तु उनकी भाषाखिचड़ी है। हिन्दी के साथ उसमें उर्दू शब्दों  का प्रयोग अधिक है।
  १२-वाबू बालमुकुन्द गुप्त पहले उदू के प्रेमी थे। बाद  को पं० प्रतापनारायण मिश्र के सहबास के कारण हिन्दी प्रेमी बन गये । उन्होंने उन्हीं से हिन्दी लिखने की प्रणालो सोखी । अतएव उन्हीं की सो फड़कती और चलती भाषा प्रायः लिखी है । उन्होंने बहुत दिनों तक भारत-मित्र पत्र का सम्पादन किया था। दो तीन छोटी मोटी हिन्दी पुस्तकें भी लिखी हैं । उर्दू में पूरा अभ्यास होने के कारण उनकी मापा मंजी हुई होती थी। वे सरस हृदय थे.इसलिये सुन्दर और सरस कविता भी कर लेते थे । उनकी हिन्दी भाषा की कविता थोड़ी हैं, पर अच्छी हैं। उनके कुछ गद्य पद्य देखिये:--
  "तीसरे पहर का समय था. दिन जल्दी जल्दी ढल रहा था। और सामने से संध्या फुर्ती के साथ पाँव बढ़ाये चली आती थी। शर्मा महाराज बूटी की धुन में लगे हुए थे। सिलबट्टा से भंग गगड़ी जा रही थी । मिर्च मसाला साफ हो रहा था। बादाम इलायची के छिलके उतारे जाते थे । नागपुरी नागियां छील छील कर रस निकाला जाता था। इतने में देखा