पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६९२

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कारण है कि अपनी इच्छा के अनुकूल अपनी हिन्दी भाषा की शैली को वे बोलचाल के रङ्ग में नहीं ढाल सके ओर न हिन्दो की कोई निश्चित शैली स्थापन कर सके। उनके रचे 'गजा भोज के सपना की हिन्दो बड़ी सुन्दर है, उसमें हिन्दी के मुहावरे भो बड़ी उत्तमता से आये हैं, परन्तु इतिहास तिमिर नाशक इत्यादि को भाषा ऐसी नहीं है, उसको खिचड़ी भाषा कह सकते हैं। राजा लक्ष्मण सिंह और बाबू हरिश्चन्द्र आदि ने इसका प्रतिकार किया, उनको अपने कार्य में सफलता भी प्राप्त हुई। इस समय कचहरियों में हिन्दी के प्रवेश का आन्दोलन भी उठ खड़ा हुआ था. पूज्य मालवीय जी के नेतृत्व में युक्त प्रान्त के अनेक सम्भ्रान्त हिन्दू इस आन्दोलन के पृष्ठ पोषक बन कर कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुये थे। फल यह हुआ कि सकार की दृष्टि भी इस ओर विशेष रूप से आकर्षित हुई और वह इस विचार में पड़ी कि इस द्वन्द की निष्पत्ति क्या करें। अतएव भाषा के रूप को ओर उसका विशेष ध्यान गया. क्योंकि पाठशाला और स्कूल की पुस्तकों को भाषा का प्रश्न भी सामने था। इस समय पण्डित लक्ष्मीशङ्कर एम० ए० कुछ हिन्दू अधिकारियों के साथ सम्मुख आये और एक नई माषा गढ़ी गई, जिसका नाम बाद को हिन्दुस्तानी पड़ा। पण्डित जो के स्कूलों का इन्सपेक्टर नियत हो जाने के कारण इस भाषा में बल आया और साधारणतया इसी भाषामें स्कूलों के कोस की अधिकतर पुस्तकों की रचना हुई । यह नई भाषा कोई दूसरो भाषा नहीं थी. राजा शिवप्रसाद को बालचाल को भाषा हो थी, जिसका कुछ परिमार्जन हुआ था। पण्डित लक्ष्मीशङ्कर के दल के लोग इसको हिन्दी ही कहते । परन्तु कुछ लोग उसको मुमल्मानों को संतुष्ट करने केलिये हिन्दुस्तानी बतलाते। जो अर्थ हिन्दुस्तानी का है वही अर्थ हिन्दी का है। केवल वाद निराकरण केलिये ही नवीन नाम को कल्पना हुई। पण्डित लक्ष्मी शङ्कर की 'काशी पत्रिका इसी भाषा में निकलती थी और देवनागरी एवं फारसी दोनों अक्षरों में छपती थी। इस पत्रिका का ग्रामीण पाठशालाओं तक में प्रवेश था। इस लिये इसके द्वारा हिन्दी के प्रचार में कुछ न कुछ सुबिधा अवश्य हुई । काशी पत्रिका को भाषा बोलचाल की भाषा