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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६९३

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होतो थी । और उसमें फारसी अरबी के वही शब्द आते थे जिनको जनता प्रायः बोलती है. परंतु कसर यह थी कि संस्कृत के तत्सम शब्द उसमें नहीं आने पाते थे। जहां काम पड़ने पर फारसी अरबी के कठिन से कठिन शब्द ले लिये जाते थे. वहां संस्कृत शब्दों को ऐसे अव- सरों पर भी स्थान नहीं मिलता था, इस लिये अधिकांश हिन्द लेखकों की दृष्टि में यह भाषा नहीं जंचो। परिणाम यह हुआ कि संस्कृत गर्भित हिन्दी ही का अधिक प्रचार हुआ और इस भाषा का क्षेत्र संकुचित हो कर रह गया। . अन्त में पं. जो को दृष्टि भी इधर गई और उनके पदार्थ विज्ञान विटप' आदि ग्रंथ ऐसी भाषा में लिग्वे गये, जिसमें फ़ारसी-अरबी के स्थान पर संस्कृत तत्सम शब्दों का ही प्रयोग अधिकतर हुआ था। उनके उन्नति प्राप्त प्रेस का नाम 'चन्द्रप्रभा' था. और उनकी पत्रिका का नाम था काशी पत्रिका ये दोनों नाम भी उनके मनोभावके सुचक हैं। मैंने अपनी आंखों देखा है कि दौरेके दिनों में जब लड़के उनके पास हिन्दी कवितायें लेकर पहुंचते. तो वे उनको प्रमसे सुनते, लड़कोंको शाबाशी देते कभी कभी उनको पुरष्कृत भी करते । पहले पहल पद्मावतका सुन्दर सँस्करण उन्होंने ही हिन्दीमें निकाला । उन्होंने 'त्रिकोणमितिको उपक्रमणिका' नामक एक सुन्दर प्रन्थ हिन्दी में बनाया था, जिसका उस समय बड़ा आदर हुआ था। पण्डित रमाशङ्कर मिश्र उनके छोटे भाई थे. वे आजमगढमें ज्वाइण्ट मजि- ष्ट्रेट थे. बाद को कई जिलों में कलक्टर रहे। उनकी स्कूली पुस्तकें अधिकत्तर हिन्दुस्तानी भाषाहीमें लिखी गयो थीं, विभिन्न अभरीमें छपकर वे हिन्दू मुसल्मान दोनों के लड़कों के काम आती थीं । परन्तु उनमें भी हिन्दी प्रेम था। वे संस्कृत के विद्वान थे. अतएव हिन्दी भाषा को रच- नाओं को विशेष स्नेह दृष्टि से देखते थे। हिन्दी का लेखक होने के ही कारण मुझ पर भी उन्हों ने कई विशेष अवसरों पर बड़ी कृपा की थी। मेरा विचार है कि प्रचार काल में इन दोनों भ्राताओं से भी हिन्दी भाषा को वृद्धि में सहायता पहुँचो है और उन्हों ने अपनी पत्रिका और ग्रंथों द्वारा हिन्दुओं के इस संस्कार को बहुत अधिक दूर किया है कि अबी फ़ारसी के शब्द हिन्दी में आये नहीं कि वह उई हुई नहीं। हिन्दी अक्षरों