पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६९७

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ही आदर्श हिन्दी भाषा शैली उपस्थित की है। परन्तु वे लोग स्वच्छंदचारी और मनस्वी थे. जो लिखते थे. अपने विचारानुसार लिखते थे. वे परीक्षा की कसौटी पर कसे नहीं थे, इसलिये उनमें उतना परिमार्जन नहीं मिलता। कहीं कहीं उनकी स्वतंत्र गति भी देखी जाती है. उनके अवतरणों के वे अंश देखिये, जिन पर लम्बी लम्बी लकीरें खिची हैं। उनमें ब्रजभाषा के शब्द ही नहीं. क्रियायें भी मिलतो हैं, ग्रामीण शब्द भी पाये जाते हैं, और सदोप प्रयोग भी । परन्तु प्रचार काल वाले विद्वज्जनों में वह बात नहीं पाई जाती या यह कहें कि यदि पाई जाती है तो नाम मात्र को। इस काल में यह बात स्पष्ट देखी जाती है, कि संस्कृत गर्भित भापा ही अधिकतर लिखी जाती है, यद्यपि सरलता की ओर भी दृष्टि पर्याप्त थी। चाहे पं० भीमसेन जी की भाषा को देखिये, चाहे पं० अम्बिका दत्त व्यास की भाषा को, सबमें यह वात पाई जाती है । साहित्य लेखको श्री निवास दास और बाबू गधा- कृष्ण दास इत्यादि में यह बात और अधिक मिलती है। यद्यपि इस काल में भी कुछ लोग अपनी भाषा में विदेशी शब्दों को नहीं ग्रहण करना चाहते थे। परंतु साधारणतया यह विचार ढीला पड़ गया था और लोग आवश्यक विदेशी शब्दों का प्रयोग करने में संकोच नहीं करते थे। इस काल में ऐसे लोग भी पाये जाते हैं, जो उपन्यासों के लिये बोलचाल की भाषा लिखना ही पसंद करते हैं और यथावसर मुहाविरे की रक्षा के लिये अथवा वाच्यार्थ को स्पष्ट करने एवं कथन को अधिक भावमय बनाने के लिये निस्संकोच भाव से फ़ारसी अरबी अथवा अन्य विदेशी भाषा के शब्दों का व्यवहार करते हैं। बाबू बालमुकुन्द आदि ऐसे ही लायक हैं। परिहासमय व्यंग- पूर्ण लेखों में विदेशीय शब्दों की भरमार मभी करते हैं, कारण यह है कि बोलचाल में ही अधिक व्यंगात्मक लेख लिंग्य जाने हैं और ऐसी अवस्था में उन फ़ारसी अग्बी अथवा अन्य भाषा के शब्दों का त्याग नहीं हो सकता जो उसके अंग बन गये हैं। वरन् उनके आने ही में बोलचाल की भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो कर अधिक प्रभावशालिनी और चटपटी बन जाती है, अन्यथा वह कृत्रिम और बनावटी ज्ञात होती है। यदि हम व्यंग करते हुये कहें कि इनकी हवा बिगड़ गई, फिर भी ये हवा बाँध रहे