पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६९९

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अधिक निकटवर्ती हो और उसमें संस्कृत के शब्द यदि आवें भी तो थोड़े, परन्तु यह शैली चलाई जाने पर भी व्यापक न हो सकी । कारण हिन्दी का राष्ट्रीयता सम्बन्धो विचार और वह निर्धारित सिद्धान्त था जिसका वर्णन मैं ऊपर कर चुका हूं। संस्कृत के शब्द हो भारतवर्ष के सब प्रान्तों में अधिकता से समझे जा सकते हैं। इस लिये उसका अभाव हिन्दी की राष्ट्रीयता का वाधक होगा, यह समस्त हिन्दी संसार जानता है। निर्धारित शैली का त्याग युक्ति-संगत नहीं, क्योंकि इससे उसकी प्रगति में वाधा पड़ेगी। इससे यह निश्चित है कि संस्कृत गर्मित शैली गृहीत रहेगी, वही इस समय व्यापक भी है। इसको विशेष परिमार्जित करने का श्रेय प्रचार काल को है।।

  इसी काल में स्वर्गीय वाबू गमदीन सिंह ने मुझ को लिखा कि डा० जी० ए० ग्रियर्सन साहब की इच्छा है कि हिन्दी भाषा में एक ऐसा ग्रंथ लिखा जावे जो ठेठ हिन्दी का हो, जिसमें न तो संस्कृत के शब्द हो न किसी अन्य भाषा के। मेग 'टठ हिन्दी का ठाट' नामक ग्रन्थ उन्हीं के अनुरोध का परिणाम है, उसको भाषा का कुछ अंश यह है:-
  "सूरज वैसा हो चमकता है. बयार  वैसी ही  चलता है।  धूप वैसो ही उजली है, रूख वैसे ही अपने ठोगे खड़े हैं. उनको हाग्यालो भी वैसी ही है, बयार लगने पर उनके पत्तं वैसे ही धीरे धारे हिलते हैं, चिड़ियां वैसी ही बोल रही हैं। गत में चाँद वसा ही निकला. धरती पर चाँदनी वैसी ही छिटकी, तारे वैसे ही निकले, सबकुछ वैसा ही है। जान पड़ता है देवबाला मरी नहीं। धरतो सब वैसी ही है. पर देववाला मर गई । धरती के लिये देवबाला का मरना जीना दोनों एक सा है। धरती क्या गाँव में चहल पहल वैसी ही है। हँसना, बोलना, गाना, बजाना. उठना.बैठना, खाना, पीना, आना, जाना सब वैसाहो है ।"
  डाक्टर साहब ने इस ग्रंथ को बहुत पसंद किया. इस सिविल सर्विस की परीक्षा का कोर्स बनाया और उक्त वाब साहब को यह पत्र लिखा।