पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/७००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६८६ )

प्रिय महाशय !

   ठेठ हिन्दी का ठाट' के सफलता  और उत्तमता से प्रकाश होने के लिये मैं आप को  बधाई देता  हूं। यह एक प्रशंसनीय  पुस्तक है ।....मुझे आशा है कि  इसको  विक्री बहुत होगी, जिसके कि यह योग्य है। आप कृपा करके पंडित अयोध्या सिंह से कहिये कि मुझे इस बात का हप है कि उन्होंने सफलता के  साथ यह सिद्ध कर दिया है कि बिना अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग किये ललित और ओजस्विनी हिन्दी लिखना सुगम है।"
                                  आपका सच्चा
                               जार्ज एक ग्रियर्सन

कुछ दिनों के बाद डाक्टर साहब की यह इच्छा हुई कि इसी भाषा में एक ग्रंथ और लिावा जावे. जो कुछ बड़ा हो और जिसमें हिन्दो मापा के अधिक शब्द आवं। यह ज्ञात होने पर मैंने 'अधखिला फूल' की रचना की। उसकी माषा का अंश देखिये:-

   भोर के सूरज की सुनहली किरन धीरे धीरे आकास में फैल रही हैं. पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं. और पास के पोखरे के जल में धीरे  धीरे आकर  उतर  रही हैं। चारों ओर  किरनों का ही जमघटा है. छतों पर मुरेड़ों पर किग्न ही  किग्न हैं। कामिनी  मोहन अपनी फुलवारी में टहल रहा है और छिटिकती हुई  किरनों  की यह लीला देख रहा है, पर अनमना है।  चिड़ियाँ चहकती हैं. फूल मँहक रहे हैं, ठंढी ठंढी पवन चल रही है. पर उसका मन  इनमें  नहीं है. कहीं गया हुआ है। घड़ी भर दिन आया. फुलवारी में बासमती ने पाँव रक्खा। धीरे धीरे कामिनी मोहन के पास आकर खड़ी हुई।" ।
   
   सुप्रसिद्ध बाबू काशी प्रसाद जायसवाल को वे एक पत्र  में यह लिखते हैं: ..
                            रथफानहम-किंवरली-सरे
                                १०-१-१९०४
   "मेरी इच्छा है कि और लोग  भी 'हरिऔध  के बताये  हुये 'ठेठ हिन्दी का ठाट' के स्टाइल में लिखने का उद्योग करें और लिखें जब मैं